आपने ढेरों क़िस्से सुने होंगे कैसे मंदिरों में पंडे पुजारी लूटते हैं, बग़ैर पैसों के प्रसाद तक नहीं देते आदि आदि. जो कई बार सच भी होता है, और बात तो सीधी है मंदिर चलते पैसे से ही हैं - पर सनातन का एक सिद्धांत सदैव से रहा है यह कभी गिव एंड टेक सिद्धांत से नहीं चला...
हरिद्वार में गंगा के किनारे निरंजनी अखाड़ा रोड पर टहल रहा था. नया दौर है जेब में मोबाइल होता है कैश होता नहीं. सामने एक खूबसूरत सा मंदिर दिखा. अपने आप कदम मुड़ गये. हनुमान चालीसा चल रही थी और आरती भी. किसी श्रद्धालु ने उसका इंतज़ाम किया था, तो वह जोड़ा आगे बैठा था. उनके परिवार के सदस्य भी थे. हम भी वहाँ बैठ गये और दिव्य ऊर्जा से ओत प्रोत हनुमान चालीसा पढ़ी गई.
तत्पश्चात् प्रसाद का समय आया. मेरे पास न प्रसाद था और न चढ़ाने के पैसे. मन में थोड़ा क्लेश भी आया कि पंडित जी जो पैसे पहले सामने रख देता है उसे टीका जल लड्डू समय दे रहे हैं. हमारा नंबर आया टीका जल. पंडित जी मुड़ चुके थे. थोड़े क्लेषित मन से हम भी वापसी को तत्पर हुवे. पंडित जी ने आवाज़ लगाई रुकने को. वह अंदर लिफ़ाफ़ा लेने गये थे पैकिंग के लिए. लिफ़ाफ़े में प्रसाद स्वरूप इमरती, फल आदि रखे. अच्छे से पूजा कराई, आशीर्वाद दिया. हमने पूछने की चेष्टा करने की कोशिश की कि वह दक्षिणा में upi पेमेंट ले लें, पर उनकी स्नेहित सख़्त निगाहों ने मना कर दिया.
ऐसे ढेरों संस्मरण हैं मेरे बड़े छोटे मंदिरों के जहाँ पुजारियों ने आउट ऑफ़ वे जाकर पूजा कराई प्रसाद दिया निःस्वार्थ। सनातन दर्शन और पश्चिम दर्शन में ये जो विशेष अंतर है कि सनातन कभी ट्रांज़ेक्शनल नहीं रहा यही सनातन को अलग बनाता है सदैव से.
साभार
Nitin Tripathi