ताहिर हुसैन की बेल याचिका पर स्प्लिट निर्णय देते हुए जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्ला ने हाँ कहते हुए यह तर्क दिया कि ‘ताहिर हुसैन पाँच वर्षों से घर नहीं गया’।
ऐसे में कोई इस जज का मजहब क्यों न देखे? क्या दिलबर नेगी, जिसके हाथ-पाँव काट कर धड़ को आग में फेंक दिया, वो घर जा पाया? क्या अंकित शर्मा जिसे चार घंटों तक दो सौ लोग चाकुओं से गोदते रहे, वो घर जा पाया? क्या कॉन्स्टेबल रतन लाल, जिसे बुर्काधारियों की भीड़ ने खींचा और मुसलमानों ने नृशंसता ले मार डाला, वो घर जा पाया? क्या वो 53 लोग घर जा पाए जो ताहिर हुसैन के कारण मारे गए?
जब तक आप केवल उसके मुसलमान होने पर फोकस्ड नहीं हो, किसी भी न्याय की पुस्तक में ऐसे दरिंदे को बेल देने के लिए ऐसे कुतर्क नहीं दिए जा सकते। अमानुल्ला चाहता तो केवल यह भी कह देता कि वो मुस्लिम है, अल्पसंख्यक हैं, उसकी जात सताई हुई है?
जिस व्यक्ति ने बिना खिड़की के घर बनाया, जिसने छतों पर पेट्रोल बन की बोतलें इकट्ठा की, जिसने मुसलमानों को छत पर बुलाया और चारों तरफ हथियार, पत्थर, पेट्रोल बम और टाइलों से हमला किया, एसिड की पाउचें फिंकवाई, उस आतंकवादी के लिए इतना प्रेम?
@DelhiPolice को हर उस संसाधन का सहारा लेना चाहिए जो इसे जेल में रखे। ये है हमारी न्यायपालिका का ‘अंधा कानून’? अब क्या कानून के कान में मिट्टी डाल दी जाए ताकि वो जान न सके कि नाम क्या है!
हम इतने गिर गए हैं कि नाम देख कर, ऐसे निर्लज्ज तर्कों के साथ मुसलमान दंगाइयों का वैसे समय में बचाव होगा जब दंगे लाइव टीवी पर दिखाए जाते रहे?
इस जज को उस कुर्सी पर बैठने का कोई अधिकार नहीं। ऐसा हर जज, उस हर जज की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाता है जो जज तो अच्छा है, पर उसके नाम में उसका मजहब दिखता है।