पुराने समय में लोग व्यापार करने के लिए दूर-दूर विदेशों में जाते थे और वर्षों बाद घर लौटते थे। कई बार दशकों के बाद भी। उन्हीं दिनों की

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्ध स्वयमेव सम्पदः।।
अर्थात् किसी कार्य को बिना विचारे एकाएक नहीं करना चाहिए क्योंकि सोच-विचार न करना बड़ी विपत्तियों का कारण है। जितनी भी प्रकार की संपत्तियाँ हैं सोच-समझकर कार्य करने वाले व्यक्तियों के गुणों से आकर्षित होकर स्वयं ही उसके पास आ जाती हैं, उसे समृद्ध कर देती हैं।
यह पढ़ने के बाद व्यापारी ने अपना निर्णय बदल दिया और घर का दरवाज़ा खटखटाया। पत्नी ने दरवाज़ा खोलने से पहले काफी पूछताछ की और जब पूरी तरह से आश्वस्त हो गई कि दरवाज़ा खटखटाने वाला उसका पति ही है तो उसने शीघ्रता से दरवाज़ा खोल दिया।
पति को देखकर पत्नी की प्रसन्नता की सीमा न रही। उसने फौरन युवक को भी जगाया और पति से कहा कि ये आपका पुत्र है जो अब पूरे बीस वर्ष का हो गया है। अठारह वर्ष पहले जब आप विदेश गए थे तो ये दो साल का था। भावातिरेक में पिता की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने पुत्र को हृदय से लगाकर प्यार किया। अब व्यापारी का संदेह ख़त्म हो चुका था।
एक श्लोक के सार्थक संदेश ने न केवल उसे पुत्रहंता होने के पाप से बचा लिया अपितु उसकी गृहस्थी भी उजड़ने से बच गई।
विमृश्यकारिता अर्थात् सोच- समझकर कार्य करना व क्षिप्रकारिता अर्थात् जल्दबाज़ी न करना महान गुण हैं।
जीवन में भ्रांतियाँ अथवा समस्याएँ उत्पन्न होना स्वाभाविक है। जब अचानक कोई भ्रांति उत्पन्न हो जाए अथवा समस्या आ खड़ी होती हैं तो हम घबरा जाते हैं और फ़ौरन प्रतिक्रिया करते हैं। इससे कई बार समस्या सुधरने की बजाय और बिगड़ जाती है। अतः हमें कभी भी बिना पर्याप्त विमर्ष किए कोई कार्य नहीं करना चाहिए। कहा गया है कि जल्दी का काम शैतान का होता है। जिस प्रकार से रोग का उपचार करने के लिए उसका सही निदान अनिवार्य है उसी तरह से कोई समस्या हो अथवा भ्रांति उसे दूर करने के लिए भी पर्याप्त विचार-विमर्ष करना अत्यंत आवश्यक है।