अनुभव सिन्हा उन कम्युमिस्ट फिल्मकारों में शामिल हैं जिन्होने अपने एजंडे को लागू करने के लिए बॉलीवुड की विश्वसनीयता को रसातल में पहुंचाया है। इनकी अपनी एक विभाजनकारी विचारधारा है जो ये अपनी फिल्मों के जरिए फिल्मी पर्दे पर उतारते हैं।
याद करिए बदायूं कांड जो संभवत: 2015 में हुआ था। रायटर की एक शातिर लिबरल महिला पत्रकार ने खबर लिख दी थी कि पेड़ पर जिन दो लड़कियों की लटकती हुई लाश मिली है वो दलित थीं और उनका ऊंची जाति के लोगों ने बलात्कार किया था।
बस कौआ कान ले गया वाला कांड हो गया। पूरे देश के कम्युनिस्ट सियारों ने हुआं हुआं करना शुरु कर दिया। हमला वहां की अखिलेश सरकार पर नहीं बल्कि दिल्ली की मोदी सरकार पर हुआ क्योंकि बीजेपी हिन्दुत्ववादी सवर्णों की पार्टी है।
सीबीआई जांच हुई तो पता चला कि वो दोनों लड॒कियां दलित थी ही नहीं और न ही उनके साथ कोई बलात्कार हुआ था। सवर्णों का इस पूरे मामले से कुछ लेना देना ही नहीं था। जो लड़कियां थी वो शाक्य जाति की थी जिनका यादव लड़कों से प्रेम प्रसंग था। प्रेम में असफल हुईं तो फांसी लगा ली।
लेकिन उसके बाद प्रकट हुए अनुभव सिन्हा अपनी फिल्म लेकर जिसका नाम था आर्टिकल 15। पूरी फिल्म में यह बताया गया है कि कैसे दलितों के साथ ब्राह्मण अत्याचार करते हैं। फिल्म में वो दोनों लड़कियां भी दलित ही थीं और उनके साथ ब्राह्मण लड़कों ने बलात्कार किया था। एक बात और जो जांच अधिकारी था वह भी ब्राह्मण ही था लेकिन वह सब जाति पांति मानता नहीं था।
अब कोई आर्टिकल 15 देखेगा तो यह सर्च करने नहीं जाएगा कि असल में वह केस था क्या? वह तो फिल्म देखेगा और वह धारणा बना लेगा जो अनुभव सिन्हा जैसे फिल्मकार बनवाना चाहते हैं। उनके वर्ग संघर्ष की बुनियाद तो ऐसे ही झूठ की ईंटों से बनी है।
इसलिए आईसी814 पर उन्होंने कोडनेम वाला खेल कर दिया तो क्या बड़ा काम कर दिया? यह सब तो इनके दाएं बायें का काम है। यही सब करके कम्युनिस्ट फिल्मकारों ने बॉलीवुड को विचारधारा का ऐसा गंदा नाला बना दिया जिसके कारण वह पूरी फिल्म इंडस्ट्री अविश्वनीय हो गयी है। अब भविष्य में कोई यह सीरिज देखेगा तो आतंकवादी हाईजैक में भी भाईचारा का संदेश लेकर ही जाएगा। मोहब्बत की दुकान से नफरत का सामान ऐसे ही परोसा जा रहा है।