उपनिषद् कहते हैं-
ब्रह्मप्रणवसंधान नादो ज्योतिर्मयः
शिवः स्वयमाविर्भ-वेदात्मा मेधापायेंऽशुमानिव
सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां संधाय वैष्णवीम् श्रृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा अभ्यस्यमानो नादोऽयं बाह्यामावृणुते ध्वनिम् पक्षाद्विपक्षमखिलं
जित्वा तुर्यपदं व्रजेत् ।
- नादबिंदूपनिषद् ३०।३१।३२ 54/114
संगीत द्वारा बहुत सी बीमारियों का उपचार किया जाने लगा है। चिकित्सा विज्ञान भी यह मानने लगा हैं कि प्रतिदिन २० मिनट अपनी पसंद का संगीत सुनने से बहुत से रोगों से दूर रह सकते है। जिस प्रकार हर रोग का संबंध किसी ना किसी ग्रह विशेष से होता हैं उसी प्रकार संगीत के हर सुर व राग का संबंध किसी ना किसी ग्रह से अवश्य होता हैं। यदि किसी जातक को किसी ग्रह विशेष से संबन्धित रोग हो और उसे उस ग्रह से संबन्धित राग, सुर अथवा गीत सुनाये जायें तो जातक शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता हैं| यहाँ इसी विषय को आधार बनाकर ऐसे बहुत से रोगों पर उपचार करने वाले रागों के विषय मे जानकारी देने का प्रयास किया गया है। मनुष्य की कोमल भावनाओं को झंकृत, तरंगित करने पर उसमें देवत्व का उदय होता है। इस प्रयोजन की पूर्ति में नादयोग द्वारा शब्द ब्रह्म की साधना करना एक उत्कृष्ट योगाभ्यास है। उससे जन मानस के परिष्कार का लक्ष्य प्राप्त करने में अच्छी सहायता मिल सकती है
जिन शास्त्रीय रागों का उल्लेख किया गया है उन रागों मे कोई भी गीत, भजन या वाद्य यंत्र बजा कर लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
🔹हृदय रोग
इस रोग मे राग दरबारी व राग सारंग से संबन्धित संगीत सुनना लाभदायक है।
योगी लोग बताते हैं कि शरीर का सूक्ष्म ढाँचा बिलकुल सितार जैसा है। मेरुदंड में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के तार लगे हैं। यह तार मूलाधार स्थित कुंडलिनी से बंध गए हैं। आज्ञा चक्र से लेकर मूलाधार तक के ६ चक्र इसके वाद्य स्थान हैं। इसमें लें, वँ, रँ, बँ, हैं, और 'ओम्' की ध्वनियाँ प्रतिध्वनित होती रहती हैं। अब स्थूल जगत् में सा, रे, ग, म, प, ध, नी, यह स्वर जब वाद्य यंत्र से ध्वनियाँ निकालते हैं और शरीरस्थ ध्वनियों से टकराते हैं, तो इस संघर्षण और सम्मिलन से मनुष्य का अंतर्जगत् संगीतमय हो जाता है। इन तरंगों में असाधारण शक्ति भरी पड़ी है। इन तरंगों के प्रवाह से शारीरिक और मानसिक जगत् के सूक्ष्म प्राण गतिशील होते हैं, तदनुसार विभिन्न प्रकार की योग्यता, रुचि, इच्छा, चेष्टा, निष्ठा, भावना, कल्पना, उत्कंठा, श्रद्धा आदि का आविर्भाव होता है।
🔹 अनिद्रा
यह रोग हमारे जीवन मे होने वाले सबसे साधारण रोगों में से एक है। इस रोग के होने पर राग भैरवी व राग सोहनी सुनना लाभकारी होता है !
कैसे ?
हास्य रस, वीर रस, श्रृंगार रस, शांत रस आदि नौ रस गायन के माने गये हैं, उनके लिये विशेष राग-रागिनियाँ और विशेष समय का निर्देश किया गया है। समय, राग और रस-इनके सम्मिश्रण से एक विशेष प्रकार का ध्वनि-प्रवाह उत्पन्न होता है और उससे अगणित मानसिक रोगों की चिकित्सा हो सकती है। शरीर पाँच तत्त्वों से बना माना जाता है। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार उसकी गतिविधियाँ वात, पित्त, कफ के अनुसार दबती-उभरती रहती हैं। बायोकैमिक चिकित्सा में बारह नमक शरीर के संचालक और आरोग्य के आधार हैं। होम्योपैथी में विष तत्त्वों की विवेचना की गई है। क्रोमोपैथी (सूर्य चिकित्सा) में सात रंगों की न्यूनाधिकता स्वास्थ्य के संतुलन-असंतुलन का कारण है। स्वर-शास्त्र के अनुसार काय-कलेवर में सप्त सूक्ष्म नाद उठते रहते हैं। इन्हें जगत् में सप्त स्वरों से पहचाना जाता है। सूक्ष्म स्वरूप के दबने-उभरने से जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य असंतुलन उत्पन्न होता है, उसे स्वर विज्ञान के आधार पर उपयुक्त गायनों के विधान से संतुलित किया जा सकता है।
🔹एसिडिटी
इस रोग के होने पर राग खमाज सुनने से लाभ मिलता है
कैसे ?
संगीत के आदि इतिहास पर दृष्टि डालें, तो वह विनय, भक्ति, करुणा और ममत्व की अनुभूतियों के साथ उद्भूत हुआ प्रतीत होगा। ईश्वर-भक्ति के पीछे उदात्त प्रेम की - आत्मार्पण की, लय तादात्म्य की धारा बहती दिखाई देगी। संगीत का आदि उद्गम भी इसी स्रोत के सन्निकट है। कला की उत्कृष्टता ही कालजयी बनती है।
दुर्बलता
यह रोग शारीरिक शक्तिहीनता से संबन्धित है| इस रोग से पीड़ित व्यक्ति कुछ भी काम कर पाने मे स्वयं को असमर्थ अनुभव करता है। इस रोग के होने पर राग जयजयवंती सुनना या गाना लाभदायक होता है।
किंतु कैसे ? जानिए
ब्रह्मांड में चल रहे स्वर-प्रवाह की तरह ही पिंड-रूपी सितार के तार भी अपने क्रम से झंकृत होते रहते हैं। मेरु-दंड स्पष्टतः वीणादंड है। सात धातुओं के सात तार इसमें जुड़े हैं। सप्त-विधि अग्नियों का पाचन-परिपाक चलते रहने से ही तो प्राण को पोषण मिलता है और जीवन को स्थिर रखा जाता है। यह अग्नियाँ सात धातुओं को पकाती हैं और परिपाक को तेजस् में बदलती हैं। (१) पेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन, (२) नाड़ियों का रक्ताभिषरण, (३) फुफ्फुसों का श्वास-प्रश्वास, (४) हृदय की धड़कन (५) मस्तिष्कीय विद्युत् का ऋण-धन, आरोह-अवरोह (६) चित्त का विश्राम-जागरण (७) कोशिकाओं का जन्म-मरण-यह सात क्रियाकलाप ही जीवन विद्या के मूलभूत आधार हैं। इन्हीं को सप्त-ऋषि, सप्त-लोक, सप्त-दीप, सप्त सागर, सप्त-मेरु, सप्त-सरित, सप्त-शक्ति के नाम से पुकारते हैं। शब्द-सूर्य के यही सप्त-अश्व हैं। स्वर-सप्तक इन्हीं की प्रत्यक्ष अनुभूति हैं। ब्रह्मांडव्यापी शब्द ब्रह्म का गुंजन काय-पिंड के अंतर्गत भी सुना जा सकता है।
🔹 स्मरण
जिन लोगों का स्मरण क्षीण हो रहा हो, उन्हे राग शिवरंजनी सुनने से लाभ मिलता है |
कैसे?
नाद के दो भेद हैं- आहत और अनाहत। स्वच्छंद तंत्रग्रंथ में इन दोनों के अनेक भेद-उपभेद बताए गए हैं। आहत और नाद को आठ भागों में विभक्त किया है। घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फुट, ध्वनि, झंकार, झंकृति। अनाहत की चर्चा महाशब्द के नाम से की गई है। इन्हें स्थूल कर्णेद्रिय नहीं सुन पाती, वरन् ध्यान-धारणा द्वारा अंतःचेतना में ही इनकी अनुभूति होती है।
🔹 रक्त की कमी
इस रोग से पीड़ित होने पर व्यक्ति का मुख निस्तेज व सूखा सा रहता है। स्वभाव में भी चिड़चिड़ापन होता है। ऐसे में राग पीलू से संबन्धित गीत सुने ।
कैसे?
तात्पर्य यह है कि शास्त्रीय संगीत की रचना एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित है कि उसका लाभ मिले बिना रहता नहीं।अदृश्य रूप में ऐसे अवसरों पर प्रस्फुटित स्वर-संगीत से लोगों को आह्लाद, शांति और प्रसन्नता मिलती है, लोग अनुशासन में बने रहते हैं।
🔹मनोरोग अथवा अवसाद
इस रोग मे राग बिहाग व राग मधुवंती सुनना लाभदायक होता है।
कैसे?
संवेदनशीलता परमाणुओं में स्थित सबसे कोमल भाग में कंपन के कारण संगीत है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि शब्द के २०००० बार तक के कंपन को हम सुन सकते हैं, उससे अधिक और २० कंपनों से कम के शब्द को हम नहीं सुन सकते। इसी बीच की ध्वनि में दो तरंगों के बीच में जितना समय लगता है, ध्वनि तरंगें यदि उसी समय को स्थिर रखकर बराबर प्रवाहित होती रहें, तो शरीर स्थित परमाणुओं के कोमल तंतुओं का आकुंचन-प्रकुंचन (फैलना और सिमटना) होता है, उससे उन कोशों में स्थित भारी अणु अर्थात् रोग और गंदगी के कीटाणु निकलने लगते हैं। समान समय वाले यह कंपन ही संगीत में स्वर कहे जाते हैं। उनका जीवन-विज्ञान से घनिष्ठतम संबंध माना गया है। यदि कोई प्रतिदिन मधुर संगीत सुनता, बजाता, गाता अथवा ताल और गति के साथ नृत्य करता है, तो उसका शरीर अपने दूषित तत्त्व बराबर निकालता रहता है, इस तरह रोगों के कीटाणु भी घुल जाते हैं और शरीर भी स्वस्थ बना रहता है। मन को विश्राम और प्रसन्नता मिलना शरीर के हलकेपन का ही दूसरा नाम है, अर्थात् यही ध्वनि-कंपन आत्मा तक को प्रभावित करने का काम करते हैं।
🔹रक्तचाप
ऊंचे रक्तचाप मे धीमी गति और निम्न रक्तचाप मे तीव्र गति का गीत संगीत लाभ देता है।शास्त्रीय रागों मे राग भूपाली को विलंबित व तीव्र गति से सुना या गाया जा सकता है।
कैसे?
प्राण का नाम 'ना' है और अग्नि को 'द' कहते हैं। अग्नि और प्राण के संयोग से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे नाद कहते हैं।रक्त में यही अग्नि प्राण भाँति कार्य करता है जिसे हम अपने वश में कर सकते है
🔹अस्थमा
इस रोग मे आस्था तथा भक्ति पर आधारित गीत संगीत सुनने व गाने से लाभ होता है। राग मालकँस व राग ललित से संबन्धित गीत इस रोग मे सुने जा सकते हैं ।
कैसे? बहुत ध्यान से पढ़े
संगीत रत्नाकर में नाद को बाईस श्रुतियों में विभक्त किया गया है। ये श्रुतियाँ कान से अनुभव की जाने वाली विशिष्ट शक्तियाँ हैं। इनका प्रभाव मानवी-काया और चेतना पर होता है। इन बाईस शब्द-श्रुतियों के नाम हैं- (१) तीव्रा, (२) कुमद्वाति, ३) मंदा, (४) छंदोवती, (५) दयावती (६) रंजनी, (७) रब्तिका, (८) रौही, (६) क्रोधा (१०) वडिनका, (११) प्रसारिणी, (१२) प्रीति, (१३) मार्जनी, (१४) क्षिति, (१५) रक्ता, (१६) संदीपनी, (१७) अलापिनी, (१८) मदंति, (१६) रोहिणी, (२०) रंपा, (२१) उग्रा, (२२) क्षोभिणी।
🔹शिरोवेदना
इस रोग के होने पर राग भैरव सुनना लाभदायक होता है।
कैसे ?
इन बाईस ध्वनि- शक्तियों को सप्त-स्वरों के साथ संबद्ध किया गया है।
यह विभाजन इस प्रकार है- - षड्ज (सा) तीव्रा, कुमह्वाति, मंदा, छंदोवती। – रिषभ (रे) दयावती, रंजनी, रब्तिका। - गांधार (ग) रौही, क्रोधा। - मध्यम (म) वडिनका, प्रसारिणी, प्रीति, मार्जनी। - पंचम (प) क्षिति, रक्ता, संदीपनी, अलापिनी। - धैवत (ध) मदंति, रोहिणी, रंपा। - निषाध (नि) उग्रा, क्षोभिणी। इन बाईस शक्तियों को ध्वनि के द्वारा उत्पन्न होने वाले भौतिक एवं चेतनात्मक प्रभाव ही समझना चाहिए। औषधियाँ जिस प्रकार मूल द्रव्यों के रासायनिक सम्मिश्रण से उत्पन्न होने वाले अतिरिक्त प्रभाव के कारण विभिन्न रोगों पर अपना प्रभाव डालती है। इसी प्रकार इन बाईस शक्तियों का उनके सम्मिश्रण का वस्तुओं तथा प्राणियों पर प्रभाव पड़ता है। प्राचीनकाल में इस रहस्यमय विज्ञान के ज्ञाता नाद-ब्रह्म के उपासक कहलाते थे।