स्वस्ति न इन्द्र वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तावृष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु
(यजुर्वेद सं. 25/16)
यह मंत्र इतना प्रसिद्ध है आपने कई बार कि तिलक आदि करते समय आशीर्वाद के रूप में विद्वान इसी का प्रयोग करते हैं।
इस मंत्र का शाब्दिक अर्थ है-महान कीर्ति वाला इन्द्र हमारा कल्याण करे विश्व के ज्ञान स्वरूप पूषा देव हमारा कल्याण करें जिसके हथियार अरिष्ट भंग करने में समर्थ हैं ऐसे गरुड़ देव हमारी रक्षा करें। बृहस्पति भी हमारे कल्याण की पुष्टि करें।
स्वस्तिक का अर्थ है भाग्य
स्वस्तिक शब्द 'अस' धातु से पहले लगे 'सु' उपसर्ग से बना है। 'सु' का अर्थ है अच्छा, कल्याण करने वाला, सर्वोत्तम, शुभ, 'अस' का अर्थ है होना, अस्तित्वस्वस्तिक का अर्थ है कल्याण का होना, मंगल्य का अस्तित्व। जहां भी श्री, सौंदर्य, पुरुषत्व, प्रेम, आनंद, जीवन की सुंदरता और व्यवहार का सामंजस्य, सुख, भाग्य और समृद्धि है, वहां स्वस्तिक की भावना है। स्वस्तिक की भावना विश्व विकास की भावना है। स्वस्तिक चिन्ह मानव जाति के विकास हेतु प्राचीन धार्मिक सौभाग्य का प्रतीक है।
'समाप्ति कामः मंगलं आचरेत्'
पातंजलि योग शास्त्रानुसार कोई भी कार्य निर्विघ्न संपूर्ण समाप्त हो जाये.
स्वस्तिक 'विष्णु' व 'श्री' का प्रतीक चिह्न है-
स्वस्तिक की चार भुजाएं भगवान
विष्णु भगवान के चार हाथ हैं। भगवान विष्णु ही स्वस्तिक आकृति में चार भुजाओं से चारों दिशाओं का पालन करते हैं। स्वस्तिक मध्य जो बिन्दु है वह भगवान विष्णु का नाभिकमल-ब्रह्मा का स्थान है। इस भावात्मक प्रतीक से सृष्टि की रचना का प्रतिबिम्ब मिलता है।
स्वस्तिक श्री का प्रतीक है। यह श्री विष्णु एवं धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी का प्रतीकात्मक चिह्न है। स्वस्तिक लक्ष्मी-उपासना, श्रीकामना हेतु बनाया जाता है।
गणपति का प्रतीक स्वस्तिक चिह्न गणपति के साकार विग्रह का प्रतीक रूप है। एवं गणेश जी को शुभ कार्य करने से पहले सनातन में प्रथम स्थान प्राप्त है.
स्वस्तिक ब्रह्मांड का विज्ञान कैसे है ?
1. चित्रा 27 नक्षत्रों का मध्यवर्ती तारा है। इसका स्वामी तैत्तिरीय शाखा में इन्द्र है। वही इस मंत्र के प्रथम निर्दिष्ट हुआ है मंत्र में वृद्धश्रवा विशेषण इसके तारा सन्निवेष रूपाकार के कारण दिया गया है।
2. चित्रा में ठीक अर्धसमानान्तर 150° अंश पर रेवती नक्षत्र है जिसका देवता पूषा है। नक्षत्र विभाग के अंतिम नक्षत्र होने के कारण इसे मंत्र में विश्ववेदाः सर्वज्ञानयुक्त कहा गया है।
3. मध्य में प्रायः चतुर्यांश (90 अंश) की दूरी पर तीन ताराओं से युक्त श्रवण नक्षत्र है जिसका इस मंत्र में ताष्य शब्द युक्त है। श्रवण नक्षत्र का स्वामी विष्णु है तथा ताक्ष्य (गरुड़) विष्णु का वाहन है।
4. इसके अर्धान्तर पर तथा रेवती के चतुर्यांश पर 190 अंश की दूरी पर पुष्य नक्षत्र है, जिसका स्वामी बृहस्पति है। वह इस मंत्र के चतुर्थ पाद में निर्दिष हुआ है। इस प्रकार सम्पूर्ण खगोल को पुष्य, चित्रा, श्रवण तथा रेवती (90, 90 अंश के) चार समानान्तर विभागों में विभक्त किया गया है तथा प्रार्थना की गई है कि 'चारों दिशाओं के देवताओं! आप हमारा कल्याण करें।' चार बिन्दु चार दिशाओं के स्वामी के प्रतीक हैं।
किसी भी मंगलमय कार्य के समय स्वस्तिक चिह्न को स्थान देने का अभिप्राय मरीचि अरुन्धती सहित वसिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह कृत आदि सप्त ऋषियों का आह्वान कर उसका आशीर्वाद प्राप्त करना है।