1. शुद्धि के बिना मन्त्रोच्चारण फलदायक नहीं होता कुल्ला, मन्जन/दातुन आदि से भली प्रकार मुखशुद्धि की जानी चाहिए। किन्तु कुल्ला या मन्जन कभी तर्जनी उंगुली से दाँत रगड़ कर नहीं किया जाना चाहिए। यह निषिद्ध है। देखिए 'पद्मपुराण' का यह श्लोक-
मध्यमानामिकाभ्यां च वृद्धाङ्गुष्ठेन च द्विजः ।
दन्तस्य धावनं कुर्यान्न तर्जन्या कदाचना ।।
2. 'सांख्याययन स्मृति' के अनुसार उबासी आने पर चुटकी बजानी चाहिए। छीक आने परे 'शतं जीवेम शरदः ' ऐसा कहें। थूक अथवा नेत्रों में जल आने पर दाहने कान को दाहिने अंगूठे से स्पर्श करना चाहिए। डकार आने पर 'ओ३म्' अथवा 'हरिओ३म्' कहना चाहिए।
3. एकादशी, अमावस्या, चर्तुदशी, पूर्णिमा, संक्रान्ति, व्यातिपात, व्रत, श्राद्ध, नवरात्र, रवि मंगल तथा शनि के दिन क्षौर कर्म न कराएँ। ऐसा 'वाराही संहिता' का आदेश है। 'गर्ग संहिता' के अनुसार रविवार को क्षौर कर्म कराने से एक मंगलवार को आठ तथा शनिवार को सात मास की आयु क्षीण होती है। जबकि बुधवार को पाँच, सोमवार को सात, गुरुवार को दस और शुक्रवार को क्षौर कर्म कराने से ग्यारह मास की आयु बढ़ती है। किन्तु गृहस्थों के लिए बृहस्पतिवार भी क्षौर कर्म के लिए त्याज्य है और पुत्रवान के लिए सोमवार भी त्याज्य है। (क्षौर कर्म का अर्थ बाल, दाढ़ी आदि कटाने व नाखून कटाने से है)
4. षष्ठी, एकादशी, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रवि, मंगल, गुरु और शुक्रवार को तेल मालिश नहीं करनी चाहिए। जिन लोगों पर शनि का प्रकोप है। उन्हें शनिवार को भी तेल नहीं लगाना चाहिए। ऐसा 'ज्योतिष सार' का मत है।
5. गंगा के स्नान करते समय, कुल्ला, थूक, बलगम, मूत्र आदि नदी में न गिराएँ। दातुन या मंजन गंगा नदी में न करें। गंगा में स्नान के बाद भीगी धोती न नदी में बदलें, न निचोड़े। ऐसा 'पद्मपुराण' का आदेश है। धोबी के कपड़े धोने वाले पत्थर से जितनी दूर तक धोएँ गए वस्त्र के छींटे उड़ते हैं। उतना जल अपवित्र माना जाता है। ऐसा भी स्मृतियों में आया है। यदि गंगा में स्नान करते समय सूर्य को अर्घ्य देना हो तो पूर्व की ओर मुख करके, नाभि तक जल में खड़े होकर देना चाहिए। यदि मध्याहन या सायंकाल हो तो नदी के प्रवाह की ओर मुख करके अर्घ्य दें। जल के ऊपर ब्रह्महत्या रहती है। अतः जल हिला कर तीन गोते लगाने चाहिए यदि घर में स्नान करना है तो पूर्व की ओर मुख करके करे.
6. पुण्य कर्मों में दो वस्त्र धारण करें। अभाव में आधी धोती ओढ़कर नया या धोती का धोया हुआ वस्त्र धारण करें। अमावस्या, हुए संक्रान्ति, रवि और श्राद्ध के दिन तथा बृहपतिवार को कपड़ों व कण स्वयं को साबुन से न धोएँ। न ही धोबी को धोने के लिए इन दिनों वस्त्र दें। जल में सूखे वस्त्र पहनकर तथा स्थल में भीगे वस्त्र पहन सन्ध्या आदि न करें। ऐसा 'पारस्करमृह्यसूत्र' में में कहा है।
7. नया वस्त्र मंगलवार को धारण न करें। नया वस्त्र धारण करते स्थर समय निम्न मन्त्र का उच्चारण करें-
ॐ परिघास्यै यशोधास्यै दीधाभुत्वा य जरदष्टिस्मि । यदि शञ्च जीवामि शरदः पुरूचीरायस्योषर्माभसंव्ययिष्ये ॥
8. मृगचर्म, ऊन व कुशा के आसन पवित्र माने गए है। इन्हें उत्तर दक्षिण दिशा में बिछाकर उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिए।शिखा बाँधकर सब कार्य करने चाहिए। शिखा न हो तो शिखा जल स्थान का हाथ से स्पर्श करके - चिडूपिणि ! महामाये ! दिव्यतेजः समन्विते ।
तिष्ठदेवि ! शिखामध्ये तेजो वृद्धि कुरुस्व मे ॥
मन्त्र के उच्चारण के साथ कार्य आरम्भ करना चाहिए।
9. बिना तिलक किए सन्ध्यया, पितृकर्म और देव पूजा आदि नहीं करने चाहिए। चन्दन के अभाव में रोली अथवा हल्दी का तिलक करना चाहिए। वह भी न हो तो भस्त का ही तिलक करें। वह भी न हो तो जल से तिलक करें। तिलक करने में अनामिका शान्ति देने वाली, मध्यमा आयु वृद्धिवर्द्धक अंगूठा पुष्टी देने वाल, तर्जनी मोक्ष देने वाली है। चकले पर चन्दन घिसकर न। लगाएँ। ऐसा 'स्कन्दपुराण' में आया है।
10. रोग आदि के कारण या अन्य कारणों से यदि बिना स्नान के ही पूजा करनी पड़ जाए तो मणिबन्ध तक हाथों को, घुटनों तक पैरों को और मुख को धोकर घुटनों के मध्य हाथ रखते हुए आचमन करना चाहिए। इससे स्नान के समान ही शुद्धि होती है। किन्तु किसी कारण ऐसा करना भी सम्भव न हो तो निम्न मन्त्र द्वारा स्वयं पर अथवा जिन्हें पवित्र करना हो उन पर जल के छीटें दें-
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत्युण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥