युयुत्सु धृतराष्ट्र के पुत्र थे। सदाचारी और सत्य, धर्म का साथ देने वाले थे। जब कुरुक्षेत्र में दोनों सेनाएँ आमने सामने खड़ी हुई तब युद्ध शुरू होने से पहले युधिष्ठिर दोनों सेनाओं के बीच अपना रथ ले गए और कौरव सेना को संबोधित किया - अगर कोई सत्य, न्याय और धर्म का साथ देना चाहता है तो मैं आखरी बार आमंत्रित करता हूँ।
युयुत्सु चले आए। युधिष्ठिर ने ससम्मान उनका स्वागत किया। अपनी सेना में शामिल कर लिया। युयुत्सु युद्ध के बाद भी जीवित रहनेवाले धृतराष्ट्र के एकलौते पुत्र थे। युयुत्सु और विभीषण में फर्क ये था कि उनके आने से पांडवों को कोई फायदा नहीं हुआ जैसे विभीषण के आने से श्रीराम को हुआ था।
विभीषण राज्याभिलाषी भी थे, युयुत्सु को कोई अभिलाषा नहीं थी और वो युद्ध मे आसानी से मारे भी जा सकते थे, बस अपने नसीब से ही जीवित रहे। युयुत्सु जब पांडवों की तरफ बढ़े, तो कौरवों ने उनकी निंदा तो की लेकिन उन पर शस्त्र नहीं चलाया। चाहते तो बाणों से उनका पूरा शरीर बेध सकते थे, लेकिन कौरवों की तरफ से एक ढेला भी किसी ने फेंककर नहीं मारा।
जानते है क्यों? क्योंकि कौरव भी आखिर हिन्दू ही थे। भले ही वो अधर्म के रास्ते पर थे किंतु हिंदुत्व का डीएनए ऐसा है कि पक्ष चुनने का मौका देता है। अगर उन्हें गुरुद्वारों में नमाज से दिक्कत नही है, लेकिन योग से दिक्कत है तो उन्हें उनका पक्ष चुन लेने दीजिए। उन्हें अधर्म के रास्ते पर जाना है तो जाने दीजिए। लेकिन जो धर्म के मार्ग पर है उनके साथ लीजिए
आप खामोशी से उनके धार्मिक स्थलों में जाना बंद कर दीजिए। उनकी निंदा की जा सकती है लेकिन तीर या ढेला मत चलाइए। घृणा, तिरष्कार और अपमान से भरे शब्दो का चुनाव मत कीजिए। पांडवों से नही सीख सकते तो कौरवों से ही सीख लीजिए। अगर उनमें से एक भी सत्य की राह पर, धर्म के साथ है, तो वही आपका युयुत्सु है। उधर अभी भी अनगिनत युयुत्सु है।
सभी युयुत्सुओं की हत्या मत कीजिए। हिन्दू हो तो हिन्दू जैसा आचरण दिखाईए।
✍️ जोया मंसूरी