कहते हैं कि श्रीराम की नगरी अयोध्या में गुरु गोविंदसिंहजी के चरण पड़े थे तब संभवत: उनकी उम्र 6 वर्ष की थी। कहते हैं कि उन्होंने यहां राम जन्मभूमि के दर्शन करने के समय बंदरों को चने खिलाए थे। गुरुद्वारे में रखी एक किताब के अनुसार मां गुजरीदेवी एवं मामा कृपाल सिंह के साथ पटना से आनंदपुर जाते हुए दशम् गुरु गोविंद सिंह जी ने रामनगरी में धूनी रमाई थी और अयोध्या प्रवास के दौरान उन्होंने मां एवं मामा के साथ रामलला का दर्शन भी किया था।
गुरुद्वारा ब्रह्मकुंड में मौजूद एक ओर जहां गुरु गोविंद सिंह जी के अयोध्या आने की कहानियों से जुड़ी तस्वीरें हैं तो दूसरी ओर उनकी निहंग सेना के वे हथियार भी रखें हैं जिनके बल पर उन्होंने मुगलों की सेना से राम जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध किया था।
कहते हैं कि राम जन्मभूमि की रक्षा के लिए यहां गुरु गोविंद सिंह जी की निहंग सेना से मुगलों की शाही सेना का भीषण युद्ध हुआ था जिसमें मुगलों की सेना को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था। उस वक्त दिल्ली और आगरा पर औरंगजेब का शासन था।
इस युद्ध में गुरु गोविंद सिंह जी की निहंग सेना को चिमटाधारी साधुओं का साथ मिला था। कहते हैं कि 1699 में मुगलों की शाही सेना के हमले की खबर जैसे ही चिमटाधारी साधु बाबा वैष्णवदास को लगी तो उन्होंने गुरु गोविंद सिंह जी से सहायता मांगी और गुरु गोविंदसिंह जी ने तत्काल ही अपनी सेना भेज दी थी।
दशम् गुरु उस समय आनंदपुर साहिब में थे। निहंग सिखों की सेनाओं ने साधुओं के साथ मिलकर मुगल सेना से भीषण युद्ध लड़ा। इस युद्ध में पराजय के बाद सिखों और साधुओं के पराक्रम से औरंगजेब बहुत ही चकित और क्रोधित हो गया था।
राम जन्म भूमि का प्रथम मुक्ति यज्ञ .......
कहते हैं कि मुगलों से युद्ध लड़ने आई निहंग सेना ने सबसे पहले ब्रह्मकुंड में ही अपना डेरा जमाया था। गुरुद्वारे में वे हथियार आज भी मौजूद हैं जिनसे मुगल सेना को धूल चटा दी गई थी। गुरुजी ने अयोध्या की रक्षार्थ निहंग सिखों का बड़ा-सा जत्था भेजा था जिन्होंने राम जन्मभूमि को युद्ध करके मुक्त करवाया और हिन्दुओं को सौंपकर वे पुन: पंजाब वापस चले गए थे।
सरयू तट पर स्थित ब्रह्मकुंड गुरुद्वारे के पास ही ब्रह्माजी का मंदिर और दुखभंजनी कुआं है। मान्यता है कि अयोध्या प्रवास के दौरान सिखों के प्रथम गुरु, गुरु नानकदेवजी ने इसी कुएं के जल से स्नान किया था। सिखों के प्रथम गुरु, गुरु नानकदेवजी ने विक्रमी संवत् 1557 में यहां उपदेश दिया था।
विक्रमी संवत् 1725 में असम से पंजाब जाते समय नवम् गुरु तेगबहादुरजी ने यहां माथा टेका और 2 दिन तक अनवरत तप किया था। सिखों के अंतिम गुरु, गुरु गोविंद सिंह भी संवत् 1726 में यहां पधारे थे। उनका खंजर, तीर और तस्तार चक्र यहां निशानी के रूप में आज भी भक्तों की श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है।
सिख समुदाय के पहले गुरु नानकदेव, 9वें गुरु तेग बहादुर और 10वें गुरु गोविंद सिंह ने यहां गुरद्वारा ब्रह्मकुंड में ध्यान किया था। पौराणिक कथा के अनुसार इसी स्थान के नजदीक भगवान ब्रह्मा ने 5,000 वर्ष तक तपस्या की थी, 160 साल पहले अयोध्या में एक निहंग सिख ने की थी श्रीराम और गुरु गोविंद सिंह की पूजा ।
निहंग साधुओं का द्वितीय राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ .......
रामजन्मभूमि की मुक्ति के प्रति सिख परंपरा से जुड़े धर्मयोद्धा संवेदनशील थे। 1858 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रशासन का एक आदेश आम रामभक्तों सहित सिखों को आंदोलित करने वाला था। इस आदेश में कहा गया था कि ढांचे के बाहर हिंदू पूजा करेंगे और भीतर मुस्लिम नमाज पढ़ेंगे। हिंदुओं को ब्रिटिश प्रशासन का यह आदेश नागवार गुजरा। धर्म की रक्षा के लिए जान देने-लेने तक आमादा रहने वाले निहंग सिखों को जब यह सूचना मिली, तो उनका सामरिक दृष्टि से एक अति प्रशिक्षित दस्ता रामजन्मभूमि आ पहुंचा और उसने विवादित ढांचे पर कब्जा जमाने की कोशिश करने वालों को भगा कर स्वयं वहां अधिकार जमा लिया।
निहंगों का जत्था यहां लगभग डेढ़ माह तक रहा। इस जत्थे में सम्मिलित निहंगों ने पूजन-हवन करने के साथ विवादित ढांचे की दीवारों पर राम-राम लिखने के साथ वहां धर्म के प्रतीक निशान साहेब की स्थापना की। इस हरकत के लिए 30 नवंबर 1858 को 25 निहंग सिखों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया गया और तत्कालीन प्रशासन को यहां से निहंगों को हटाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी। करीब डेढ़ माह के बाद निहंगों ने विवादित ढांचा तो छोड़ दिया, पर ढांचा के सामने कब्जा बनाए रखा। मंदिर-मस्जिद की अदालती लड़ाई में निर्मोही अखाड़ा के अधिवक्ता रहे तरुणजीत वर्मा कहते हैं, इसी घटना के आधार पर हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीमकोर्ट तक ने यह स्वीकार किया कि 1858 तक उस स्थल पर कभी नमाज ही नहीं पढ़ी गई, जिसे दूसरा पक्ष मस्जिद की भूमि बताता है। साकेत महाविद्यालय में इतिहास की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. कविता सिंह के अनुसार, यह घटना सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है और इससे सिद्ध होता है कि हिंदुओं और सिखों की जड़ें कितनी अभिन्न हैं।
निहंग पंथ की स्थापना 1699 ई० में गुरु गोविन्द सिंह द्वारा की गयी, निहंग शब्द से अभिप्राय है ऐसे सिख जो दस गुरुओं के आदेशों के पूर्ण रूप से पालन के लिए हर समय तत्पर रहते हैं और प्रेरणाओं से ओतप्रोत होते हैं। दस गुरुओं के काल में ये सिख गुरु साहिबानों के प्रबल प्रहरी होते थे, व गुरु महाराजों द्वारा रची गई रचना गुरु ग्रंथ साहिब के प्रहरी अब भी होते हैं। यदि कभी सिख धर्म पर दुर्भाग्यपूर्ण प्रहार हो तो निहंग उस समय अपने प्राणों की परवाह किये बिना "सिख" और "गुरु ग्रंथ साहिब" की रक्षा आखरी सांस तक करते हैं। यह पूर्ण रूपेण सिख धर्म के लिए हर समय समर्पित होते हैं, और आम सिखों को मानवता का विशेष ध्यान रखने की ओर प्रेरित करते रहते हैं l
निहंगों को उनके अक्रामक व्यक्तित्व के लिए भी जाना जाता है। निहंग सिखों के धर्म-चिन्ह आम सिखों की अपेक्षा मज़बूत और बड़े होते हैं। जन्म से लेकर जीवन के अंत तक जितने भी जीवन संस्कार होते हैं, सिख धर्म के अनुसार ही उनका प्रेम से निर्वहन करते हैं l
क्रमश: .......