आज की कहानी है एक ऐसे युवक की जिसने अंग्रेजों के खिलाफ ऐसा विद्रोह किया कि अंग्रेज़ों के पास इसका सामना करने के लिए कोई सीधा रास्ता नहीं था।
कम उम्र होने के बावजूद भी उन्होंने बड़ी परिपक्वता से लोगों को संगठित किया और फिर छेड़ दिया अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आदिवासियों का सबसे बड़ा विद्रोह जिसे "उलगुलान" कहते हैं। आज की कहानी है आदिवासियों के भगवान, 'धरती आबा' के नाम से विख्यात बिरसा मुंडा की।
इस लेख को अंत तक पढ़ियेगा, आपको बिरसा मुंडा एवं हमारे आदिवासी भाइयों के बारे में बहुत कुछ जानने मिलेगा।
● कौन थे बिरसा मुंडा
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 के दशक में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सुगना पुर्ती (मुंडा) और माता का नाम करमी पुर्ती (मुंडा) था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा जी0ई0एल0चार्च (गोस्नर एवंजिलकल लुथार) विधालय में पढ़ाई करने चले गए। बिरसा मुंडा को उनके पिता ने मिशनरी स्कूल में यह सोचकर भर्ती किया था कि वहां अच्छी पढ़ाई होगी।
लेकिन स्कूल में ईसाइयत के पाठ पर जोर दिया जाता था। कहा जाता है कि बिरसा मुंडा ने कुछ ही दिनों में यह कहकर कि ‘साहेब साहेब एक टोपी है’ स्कूल से नाता तोड़ लिया। इसके बाद उन्होंने कभी उस स्कूल का मुंह नहीं देखा।
● आदिवासी विद्रोह के नायक बिरसा मुंडा
19वीं शताब्दी के अंत में अंग्रेज़ों कुटिल नीति अपनाकर आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल करने लगे। हालांकि आदिवासी विद्रोह करते थे, लेकिन संख्या बल में कम होने एवं आधुनिक हत्यारों की अनुपलब्धता के कारण उनके विद्रोह को कुछ ही दिनों में दबा दिया जाता था। यह सब देखकर बिरसा मुंडा विचलित हो गए, और अंततः 1895 में अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई ने छेड़ दी। यह मात्र विद्रोह नहीं था। यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था। पिछले सभी विद्रोह से सीखते हुए, बिरसा मुंडा ने पहले सभी आदिवासियों को संगठित किया फिर छेड़ दिया अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ महाविद्रोह 'उलगुलान'।
● आदिवासी पुनरुत्थान के जनक बिरसा मुंडा
धीरे-धीरे बिरसा मुंडा का ध्यान मुंडा समुदाय की ग़रीबी की ओर गया। आदिवासियों का जीवन अभावों से भरा हुआ था। और इस स्थिति का फायदा मिशनरी उठाने लगे थे और आदिवासियों को ईसाईयत का पाठ पढ़ाते थे। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि गरीब आदिवासियों को यह कहकर बरगलाया जाता था कि तुम्हारे ऊपर जो गरीबी का प्रकोप है वो ईश्वर का है। हमारे साथ आओ हमें तुम्हें भात देंगे कपड़े भी देंगे।
उस समय बीमारी को भी ईश्वरी प्रकोप से जोड़ा जाता था।
20 वर्ष के होते होते बिरसा मुंडा वैष्णव धर्म की ओर मुड गए जो आदिवासी किसी महामारी को दैवीय प्रकोप मानते थे उनको वे महामारी से बचने के उपाय समझाते और लोग बड़े ध्यान से उन्हें सुनते और उनकी बात मानते थे। आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने बाघ के खाए जाने को ईश्वर की मर्ज़ी मानते, लेकिन बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है। वो आदिवासियों को धर्म एवं संस्कृति से जुड़े रहने के लिए कहते और साथ ही साथ मिशनरियों के कुचक्र से बचने की सलाह भी देते। धीरे धीरे लोग बिरसा मुंडा की कही बातों पर विश्वास करने लगे और मिशनरी की बातों को नकारने लगे। बिरसा मुंडा आदिवासियों के भगवान हो गए और उन्हें 'धरती आबा' कहा जाने लगा। लेकिन आदिवासी पुनरुत्थान के नायक बिरसा मुंडा, अंग्रेज़ों के साथ साथ अब मिशनरियों की आंखों में भी खटकने लगे थे। अंग्रेज़ों एवं मिशनरियों को अपने मकसद में बिरसा मुंडा सबसे बड़े बाधक लगने लगे।
● मिशनरी षड्यंत्र के तहत पकड़ कर जहर दे दिया गया
मिशनरी ने छोटा नागपुर पठार के क्षेत्र में आदिवासी धर्मांतरण का जो सपना 19 वीं सदी में देखा था, उसमें बिरसा मुंडा सबसे बड़े बाधक बने। षड्यंत्र कर 3 मार्च को बिरसा मुंडा को पकड़ लिया गया। इसमें उनके किसी अपने ने ही 500 रुपये के लालच में उनके गुप्त ठिकाने के बारे में प्रसाशन को सबकुछ बता दिया। उनके साथ पकड़े गए लगभग 400 लोगों को कई धारा के अंतर्गत दोषी बनाया गया।
बिरसा पकड़े गए किंतु मई मास के अंतिम सप्ताह तक बिरसा और अन्य मुंडा वीरों के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की बहुत सी धाराओं में मुंडा पकड़े गया थे, लेकिन बिरसा जानते थे कि उन्हें सज़ा नहीं होगी।9 जून की सुबह सुबह उन्हें उल्टियां होने लगी, कुछ ही क्षण में वो बन्दीगृह में अचेत हो गए। डॉक्टर को बुलाया गया उसने बिरसा मुंडा की नाड़ी देखी, वो बंद हो चुकी थी।
इतिहासकार कहते हैं कि अंग्रेज़ जानते थे कि बिरसा मुंडा कुछ ही दिनों में छूट जाएंगे, क्यों कि उनपर लगाई गई धाराओं के अंतर्गत उनके ऊपर दोष साबित नहीं किया जा सकता। वो ये भी जानते थे कि बिरसा मुंडा छूटने के बाद विद्रोह को वृहद रूप देंगे और तब यह अंग्रेज़ों के लिए और घातक होगा। इसलिए उन्होंने उनके दातुन/पानी मे विषैला पदार्थ मिला दिया।
बिरसा मुंडा मरे नहीं, अपितु अमर हो गए।
जब जब आदिवासी विद्रोह के बारे में हम बात करेंगे, बिरसा मुंडा का नाम प्रथम पंक्ति में लिया जाएगा।
विशेष टिप्पणी : जो लोग कहते हैं कि हम बेकार में मिशनरियों को बदनाम करते हैं वो बिरसा मुंडा एवं अन्य आदिवासियों पर किये हुए अत्याचार के बारे में या तो जानते नहीं हैं, या फिर जानते हुए भी अनजान बनते हैं। और ऐसा कर वो "धरती आबा" बिरसा मुंडा का सरासर अपमान कर रहे हैं। बिरसा मुंडा ने जो काम अपने अल्प जीवन में किया, वो कार्य उस समय बड़े बड़े शूरमाओं के लिए असंभव था। हम नमन करते हैं वीर बिरसा मुंडा को जिन्होंने अंग्रेज़ों के कुनीतियों के ख़िलाफ़ आदिवासियों को एकजुट कर महाविद्रोह किया।
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