श्री गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज आगे लिखते हैं कि,
, सभी भाइयों के यहां दो दो पुत्रों का जन्म हुआ।
*दोइ दोइ सुत सब भ्रातन्ह केरे।*
*भये रुप बल सील घनेरे।।*
श्री तुलसीदास जी महाराज ने रामचरितमानस में श्री सीता जी के वन गमन का प्रसंग नहीं लिखा।
केवल इतना लिखा कि ,
श्री सीता जी ने लव और कुश नाम के दो सुंदर बालकों को जन्म दिया ।
जिनकी महिमा वेद पुराणों ने विस्तृत रूप से गाई है।
*दोइ सुत सुंदर सीतां जाए।*
*लव कुश वेद पुरानन गाए।।*
किसी ने गोस्वामी जी से कहा।
बाबा आपने लव कुश के संबंध में इतने संक्षिप्त में क्यों लिखा?
जबकि इनकी वीरता की कहानी तो पुराणों में बड़ी प्रसिद्ध है।
आप भी इनकी कथा विस्तार से लिखो।
तुलसीदास जी ने कहा।
मैंने लिखा तो है।
वेद पुराणों में पढ़ लेना।
वेद पुराणों में इसका वर्णन है।
लव कुश वेद पुरानन गाए।।
फिर किसी ने कहा ।
इनके संबंध में आप विस्तार से क्यों नहीं लिखना चाहते हो?
क्या आप यह नहीं मानते हैं कि श्री सीता जी को राम जी ने वनवास दिया था?
आपने श्री सीता जी का वन गमन प्रसंग क्यों नहीं लिखा।?
क्या आप इसे सत्य नहीं मानते हो?
तुलसीदास जी ने कहा मैं खंडन नहीं कर रहा हूं।
जब वेद पुराणों में इसका वर्णन है।
वाल्मीकि जी ने वर्णन किया है तो असत्य नहीं है।
किंतु मेरे मन के भाव कुछ अलग है।
मेरे मन के भाव यह स्वीकार नहीं करते हैं।
मेरी भाव दशा के अनुसार तो मैं अपने श्री सीताराम जी को अयोध्या पुरी में अपने कनक भवन में विराजमान ही देखता हूं।
वह हमारे राजा है ,।
और श्री जानकी जी पटरानी।
मेरी दृष्टि में तो अयोध्या में सब जगह आनन्द ही आनन्द है।
ऐसा मेरा भाव है।
मर्मज्ञ संत कहते हैं कि, तुलसीदास जी चाहते तो सारी पृथ्वी का घटनाक्रम लिख सकते थे।
किंतु श्री सीता जी और राम जी के वियोग के इस क्षण को लिखने का साहस नहीं कर पाए।
किसी ने कहा।
कि जब आपने यह लिख ही दिया था कि सभी भाइयों के यहां दो-दो पुत्रों का जन्म हुआ।
तो फिर अलग से यह लिखने की क्या आवश्यकता थी?
कि श्री सीता जी ने लव और कुश नाम के दो सुंदर बालकों को जन्म दिया?।
तुलसीदास जी ने कहा कि यह आवश्यक था।
तीनों भाइयों के राजकुमारों का जन्म अपने पिता के यहां अयोध्या पुरी के राजमहल में हुआ।
अपने पिता के यहां इनका जन्म हुआ ।
तो इनके पिता के यहां जन्मे तो इनका परिचय पिता के नाम से दिया ।
और लव कुश का जन्म अपने पिता के यहां नहीं हुआ।
बल्कि वाल्मीकि मुनि के आश्रम में हुआ।
और श्री सीता जी वाल्मीकि मुनि के आश्रम में उसी तरह रही थी। जिस तरह एक बेटी अपने पिता के यहां रहती है।
इसलिए इनकी पहचान इनकी माता के नाम से दी गई है।
जब कोई बेटी अपनी संतान को जन्म उसके पीहर में रहकर देती है।
तो पीहर वाले लोग उस बालक का परिचय बच्चों की माता के नाम से ही देते हैं।
लौकिक दृष्टि से भी यह देखा गया है।
पीहर में रहकर जब कोई बेटी पुत्र या पुत्री को जन्म देती हैं ।
तो उस बेटी के माता-पिता लोगों से यही कहते हैं।
कि यह मेरी बेटी का पुत्र है।
बेटी के नाम से बच्चों का परिचय दिया जाता है।
बच्चों के पिता के नाम से परिचय नहीं देते हैं।
इसीलिए मैंने लव और कुश का परिचय श्री राम जी के नाम से नहीं दिया।
जनमानस में यह प्रसंग बड़े चर्चा का विषय है।
अल्प बुद्धि रखने वाले लोग अधिकांश यह कहते हुए पाए जाते हैं कि, ।
श्री राम जी ने किसी दुराचारी के द्वारा श्री सीता जी पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने मात्र से श्री सीता जी को वनवास देकर अच्छा नहीं किया।
जबकि श्री राम जी सीता जी की अग्नि परीक्षा भी ले चुके थे।
श्री सीता जी निष्कलंक थी।
यह सिद्ध हो चुका था।
फिर किसी दुराचारी के कहने से रामजी ने यह निर्णय क्यों लिया?
मर्मज्ञ संत इस प्रसंग की बड़ी सुंदर व्याख्या करते हैं।
राम जी जानते थे कि मेरा रामराज निष्कलंक राज्य होना चाहिए।
मैंने लोगों से कहा है कि।
जहां कहीं तुम्हें लगे कि मेरा निर्णय अनीति पूर्ण है।
तो तुम मुझे वहां रोक देना।
अपने मन की बात कह देना।
और आज जब किसी ने अपने मन की बात कही है तो उसकी शंका का समाधान होना आवश्यक है।
संत कहते हैं।
राम जी चाहते तो यह भी कह सकते थे कि, नहीं नहीं तुम यह सब गलत कह रहे हो।
मैंने श्री सीता जी की अग्नि परीक्षा ली है और वह निष्कलंक है।
तुम इस तरह का आरोप लगाने वाले कौन होते हो।
आरोप लगाने वाले व्यक्ति को दंडित भी कर सकते थे।
किंतु राम जी ने ऐसा नहीं किया।
राम जी जानते थे।
यदि मैं इस तरह का निर्णय लूंगा।
तो ।
श्री सीता जी लोगों की दृष्टि में कभी निष्कलंक नहीं हो पायेंगी।
लोगों में यह चर्चा का विषय रहेगा।
कि, भाई यह तो बड़े घरों की बात थी।
बात को वहीं दवा दिया गया।
हल्ला नहीं मचने दिया।
बड़े घरों में कोई इस तरह की बात होती है तो उसे वहीं दबा दिया जाता है।
और हम जैसे छोटे-मोटे लोगों के यहां कोई ऐसी वैसी बात होती है तो सब जगह हल्ला मचा दिया जाता है।
हम गरीब लोगों को हर कोई बदनाम कर देता है।
मर्मज्ञ संत कहते हैं।
कि श्री सीता जी के वनवास के सम्बन्ध में श्री राम जी का श्री सीता जी के प्रति यह एक अनन्य प्रेम का उदाहरण है।
राम जी चाहते थे कि श्री सीता जी निष्कलंक रहें।
चाहे यह कलंक मेरे ऊपर लग जाए।
यह विचार करके श्री राम जी ने सीता जी को वनवास दे दिया।
और जब श्री राम जी ने श्री सीता जी को वनवास दिया।
तो लोगों में सब जगह बस एक ही चर्चा थी।
राम जी ने यह बहुत बड़ा अन्याय किया है।
उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था।
यह तो रामजी ने बहुत ही ग़लत किया।
रामजी के इस निर्णय की तो कोई भी सराहना नहीं करेगा।
राम जी तो सीता जी की अग्नि परीक्षा भी ले चुके थे।
श्रीं सीता जी तो निष्कलंक है।
फिर किसी दुराचारी के कहने से सीता जी को वनवास देने जैसा निर्णय क्यों लिया?
यह तो राम जी ने बहुत ही गलत किया
और जब लोगों के मुंह से यह चर्चा श्री राम जी ने सुनी तो उनके मन में बड़ा संतोष हुआ।
श्री राम जी ने सीता जी पर लगाए हुए कलंक को, अपने सिर पर ले लिया।
और राम जी को लगा कि अब ठीक है।
सीता जी का चरित्र लोगों की दृष्टि में उज्जवल हो चुका है।
श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री राम जी और जानकी जी दो नहीं है। एक ही है।
*इसके आगे अगले प्रशंग में।*
*जय श्री राम।।*🙏🚩