जब एक ओर देश वेश्यावृत्ति के खिलाफ लड़ रहा है, बच्चियों को बचाने की मुहीम चल रही है, तो कुछ स्टैंडअप कमेडियन बेशर्मी में डूब रहे हैं। उनकी कॉमेडी उस समाजिक बेहुदगी का प्रतिनिधित्व करती है जिसे हम नकारते हैं।
क्या इन्हें इसकी पहचान है? क्या उन्हें खुद को इस बेहयाई में ढकेलकर कला का बहाना नहीं मिला? एक बार उनसे पूछने का समय आ गया है, इस भावनात्मक उथल-पुथल में इनकी जगह क्या है?
हमें इनका मानसिक स्वास्थ्य संवारने की जरुरत है, नहीं तो यह विचारशील समाज हमारी विरासत को नकार देगा। लानत है इनपर। और यदि हम इनका विरोध नहीं करते इनका और इनके गैजिम्मेदार मां बाप का बहिष्कार नहीं करते तो लानत है हमपर...