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जय श्रीराम।।
जब लंका में अंगद जी का प्रण सफल हो गया।
राम जी के प्रताप से कोई अंगद जी का पांव हिला नहीं पाया। और अंगद जी वापस रामादल में आ गए ।
कई लोग इस प्रसंग पर आध्यात्मिक चर्चा करते हैं ।
कि यदि अंगद जी अपना पांव नहीं हटाते तो निश्चित रूप से रावण अंगद जी का पांव हटा सकता था ।
दरअसल बात यह नहीं थी।
संत इस प्रसंग की व्याख्या करते हैं ।
कि अंगद जी ने अपना पांव इसलिए हटा लिया।
कि वह जानते थे।
की रावण मेरा पांव नहीं हटा सकता है।
और हटा भी नहीं सकता था। किंतु श्री राम जी के भक्त अंगद जी ने मन में विचार किया कि, यदि रावण मेरे पांव को नहीं हटा पाता है ।
इसके पश्चात राम जी यदि रावण को मारते हैं तो राम जी का क्या यश रह जाएगा।
लोग तो यही कहेंगे।
कि कौन सी बड़ी बात है। जो रामजी ने रावण को मार दिया।
रावण तो एक साधारण था। जो अंगद जी के पांव को भी नहीं हटा पाया था ।
इसलिए अंगद जी ने अपना पांव स्वयं ही हटा लिया ।ताकि श्री राम जी का प्रताप कम ना हो ।
अंगद जी जानते हैं मेरी क्या क्षमता है।
मेरी कोई योग्यता है ।
यह जो मेरा पांव भूमि पर जमा है ।
श्री राम जी के प्रताप से जमा है।
यह उन्हीं की महिमा है।
इसमें मेरी कोई योग्यता नहीं है।
और अंगद जी राम जी की महिमा को कम नहीं होने देना चाहते थे।
इसलिए रावण के झुकते ही अंगद जी ने अपना पांव हटा लिया।
जब अंगद जी लंका से लौट कर आए।
श्री राम जी ने उन्हें अपने पास बुलाया।
अंगद जी ने रामजी के चरणों में प्रणाम किया।
*आइ चरन पंकज सिरु नावा।।*
श्री राम जी ने अंगद जी से पूछा? तुमने जो चार मुकुट फेके वह किस तरह पाये?
*तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए।*
*कहहु तात कवनी बिधि पाए।।*
अंगद जी ने उत्तर दिया।
है तात वेद ऐसा कहते हैं।
कि साम दान दणड और भेद।
यह चारों गुण राजा के हृदय में बसते हैं ।
यह नीति के धर्म के चार सुंदर चरण है ।
किंतु रावण में इन चारों का अभाव था ।
ऐसा जानकर यह आपके पास आ गए हैं।
अंगद जी की चतुरतापूर्ण युक्ति कानों से सुनकर श्री रामचंद्र जी हंसने लगे ।
परम चतुरता श्रवन सुनि।
*बिहंसे रामु उदार।।*
फिर अंगद जी ने लंका के सब समाचार कहे।
उधर लंका में सब भय से व्याकुल हो गए।
*जातुधान अंगद पन देखी।*
*भय ब्याकुल सब भए बिषेसी।।*
मंदोदरी रावण को समझाती है ।
है नाथ कुबुद्धि छोड़ दीजिए।
श्री रघुनाथ जी से युद्ध शोभा नहीं देता है ।
*कंत समुझि मन तजहु कुमतिहि।*
*सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही।।*
उनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खींच दी थी।
उसे भी आप नहीं लांघ सके।
*रामानुज लघु रेख खचाई।*
*सोऊ नहिं नाघेहु असि मनुसाई।।*
है प्रियतम तुम उन्हें संग्राम में नहीं जीत पाओगे ।
एक बंदर खेल में ही समुद्र लांघकर लंका में आ गया ।
और उसने तुम्हारे बेटे को मार दिया ।
सारे नगर को जलाकर चला गया। तब तुम्हारा गर्व घमंड कहां गया था ?
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा।
*कहां रहा बल गर्व तुम्हारा।।*
है स्वामी राम जी को केवल राजकुमार मत समझिए।
वह अतुलनीय बलवान और चराचर के स्वामी हैं।
*पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु अग जग नाथ अतुलबल जानहु।।*
श्री राम जी के वाण का प्रताप तो नीच मारीच भी जानता था।
परंतु आपने उसका कहना भी नहीं माना ।
*बानु प्रताप जान मारीचा।*
*तासु कहा नहिं मानेहु नीचा।।*
जनक जी की सभा में अगणित राजा थे। वहां आप भी थे।
वहां शिवजी का धनुष तोड़कर राम जी सीता जी को ब्याह कर ले गए थे
उस समय तुमने उन्हें संग्राम में क्यों नहीं जीता?
*भंजि धनुष जानकी बिआही।*
*तब संग्राम जितेहु किन ताही।।*
तुम्हारी बहन सूर्पनखा की दशा तुमने देखी।
फिर उनसे लड़ने की बात सोचने में तुम्हें लज्जा आनी चाहिए।
*सूपनखा कै गति तुम्ह देखी।*
*तदपि हृदय नहिं लाज बिसेषी।।*
जिन्होंने विराट खरदूषण प्रबंध को मार डाला।
जिन्होंने एक ही बाण से बाली को मार दिया।
उनके महत्व को समझिए ।
*बध बिराध खर दूषनहिं,लीला हत्यो कबंध,*
*बालि एक सर मारयो,तेहि जानहु दशकंध।।*
मंदोदरी रावण को समझाती है ।
है स्वामी काल दंड किसी को लाठी लेकर नहीं मारता है।
वह धर्म बल और बुद्धि को हर लेता है ।
*कालदंड गहि काहु न मारा।*
*हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।।*
आपको दो पुत्र मारे गए हैं।
नगर जल गया है बस इतनी ही खैर है। अब भगवान का भजन कीजिए।
*दुइ सुत मरे दहेउ पुर,अजहुं पूर पिय देहु,*
*कृपा सिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु।।*
*मंदोदरी के वाण के समान वचनों को सुनकर रावण भय को भुलाकर सबेरे सिंहासन पर जा बैठा। इसके आगे अगली पोस्ट में।जय श्री राम।।*🚩🏹

