जय श्री राम।।
श्री राम जी ने विभीषण का राजतिलक कर दिया ।
लंकापति बना दिया।
इसके पश्चात सुग्रीव जी और विभीषण जी से पूछा?
कि बताओ समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए?
बड़ा विचार मंथन होने लगा।
सुग्रीव जी ने कहा समुद्र को नौका के द्वारा पार किया जाए। विभीषण जी बोले ।
सुग्रीव जी राक्षस लोग हमारी नौका को किनारे पर पहुंचने ही नहीं देंगे।
आक्रमण कर देंगे ।नौका द्वारा
यह संभव नहीं है।
सुग्रीव जी तो विभीषण जी पर पहले से ही नाराज थे।
और नाराज होते हुए बोले। विभीषण जी तुम मेरी हर बात का खंडन करते हो ।
अब तुम ही रास्ता बताओ की क्या किया जाए?
समुद्र पार करने का क्या उपाय है ? बताओं रामजी को।
तब विभीषण जी ने श्रीराम जी से कहा ।
प्रभु मेरा मत है कि समुद्र से ही विनती की जाए।
वही हमें पार होने का कोई उपाय बताएंगे।
क्योंकि आपके कुल का इस समुद्र से गहन सम्बन्ध है। आपके कुल के समुद्र पर बड़े उपकार है।
इसलिए मुझे विश्वास है हमें पार होने का मार्ग भी समुद्र ही बतायेंगे।
प्रार्थना की जाए।
श्री राम जी को विभीषण जी का यह सुझाव बड़ा अच्छा लगा।
रामजी ने कहा मित्र तुमने सही विचार किया है।
*सखा कहीं तुम्ह नीकि उपाई।।*
श्री राम जी ने लक्ष्मण जी की ओर देखा।और पूंछा?
कहो लक्ष्मण इस संबंध में तुम्हारा क्या मत है।?
लक्ष्मण जी ने व्यंग करते हुए कहा ।
करो करो विनती करो, अवश्य करो।
और कर भी क्या सकते हो। आलसी लोगों का तो यही काम है ।केवल विनती करना।
देव देव तो आलसी लोग पुकारा करते हैं।
*कादर मन कहुं एक अधारा।*
*दैव दैव आलसी पुकारा।।*
वीर योद्धा तो पुरुषार्थ करते हैं। विनती और प्रार्थना में विश्वास नहीं रखते हैं ।
और फिर क्या भरोसा? की देव हमारी सहायता करेंगे?
*नाथ दैव कर कवन भरोसा।।*
विनती और प्रार्थना करना छोड़िए प्रभु।
मन में क्रोध लाइए और समुद्र को सुखा दीजिए।
मेरा मत तो यह है।
भगवान श्री राम जी बोले । लक्ष्मण धीरज रखो।
हम ऐसा ही करेंगे।
किंतु एक बात बताओ?
तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?
कि प्रार्थना और विनती करना छोड़िए।
ऐसा व्यंग तुम्हें शोभा नहीं देता है।
प्रार्थना और विनती यह तो हमारे सनातन धर्म की परंपरा है ।
हमारे कुल की रीत है ।
तुम इसके प्रति इतने आस्था हीन कैसे हो गए।?
आस्था हीन बातें करना
यह तो हमारे कुल की रीति नहीं है।
लक्ष्मण ने कहा जानता हूं प्रभु।
मैं भी इन देवताओं को पहले बहुत मानता था।
प्रणाम करता था प्रार्थना करता था। विनती भी करता था।
किन्तु एक अनहोनी होने के कारण इन देवताओं पर से मेरा विश्वास उठ गया है।
मुझे नहीं लगता है कि , हमारी विनती को देवता स्वीकार करेंगे।
मुझे याद है जब आप पंचवटी में माता सीता के कहने से मायावी मृग के पीछे गए थे।
तब उस राक्षस मारीच ने मरते समय मेरा नाम लेकर पुकारा था।
तब श्री माता जानकी जी ने मुझे आपकी सहायता के लिए भेजने पर बाध्य किया था।
तब मैंने इन चारों दिशाओं के देवताओं को माता सीता जी की रक्षा का भार शोपां था।
कि तुम माता श्री सीता जी की रक्षा करना ।
मैं इन्हें तुम्हारे सुपुर्द करके जा रहा हूं।
किंतु जब रावण माता का हरण करके ले गया ।
तब किसी भी देवता ने सहायता नहीं की।
सब देखते रहे।
तब से मेरा इन देवताओं पर से विश्वास उठ गया है।
जब इन्होंने वहां माता श्री सीता जी की सहायता नहीं की।
तो यहां समुद्र पार होने में हमारी क्या सहायता करेंगे?
मेरा मत मानो तो उठाओ धनुष। और सुखा दो समुद्र को।
वीर पुरुषों का तो यही काम है । प्रार्थना और विनती यह आलसियों का काम है।
इधर विभीषण जी कह रहे हैं कि प्रार्थना कीजिए ।और लक्ष्मण जी कह रहे हैं पुरुषार्थ कीजिए।
उठा लीजिए धनुष।
यहां रामजी नीति का प्रयोग करते हैं।
भगवान श्री राम जी ने नीति का प्रयोग किया।
लक्ष्मण जी से भी कहा
और विभीषण जी से भी कहा। तुम दोनों की बात मानी जायेगी। हम प्रार्थना भी करेंगे,।
और पुरुषार्थ भी करेंगे।
पहले हम प्रार्थना करेंगे।
काम नहीं बना तब पुरुषार्थ करेंगे।
ऐसा कहते हुए,
भगवान श्री राम जी समुद्र से प्रार्थना करने के लिए आसन लगाकर बैठ गए।
*इसके आगे का प्रशंग अगली पोस्ट में। जय श्री राम।।*