गीता का भी एक प्रसिद्ध श्लोक है जिसे हम सब ने सुना ही होगा:-
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।।13।।
(श्रीमद्भागवत गीता,
अध्याय 4)
अर्थात:- श्री कृष्ण कहते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह,
गुण और कर्मों के आधार पर मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।
यहाँ स्पष्ट लिखा हुआ है कि व्यक्ति को गुण और कर्म को ही आधार पर ही विभाजित किया गया था ना कि जन्म के आधार पर।
और गीता में आगे सभी वर्णों के कर्म भी बताये गये हैं:-
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।।41।।
(श्रीमद्भागवत गीता,
अध्याय 18)
अर्थात:- हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।।42।।
(श्रीमद्भागवत गीता,
अध्याय 18)
अर्थात:- अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्म पालन के लिये कष्ट सहना, बाहर- भीतर से शुद्ध रहना,
दूसरों के अपराधों को क्षमा करना,
मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना;
वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना,
वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना। ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।
शौर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।।43।।
(श्रीमद्भागवत गीता,
अध्याय 18)
अर्थात:- शूरवीरता,
तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामी भाव, ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।।44।।
(श्रीमद्भागवत गीता,
अध्याय 18)
अर्थात:- खेती,
गौपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार,
ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है।
सनातन धर्म में बतायी गयी वर्ण व्यवस्था व्यक्ति के स्वभाव पर आधारित थी। जो अंग्रेजों द्वारा बनाई गई जाती व्यवस्था के ठीक विपरीत थी। अंग्रेजों ने ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र, इनको पदानुक्रम में लगाया, अर्थात एक के ऊपर एक,
जिसमें शूद्रों को सबसे नीचे रखा गया। जिसके कारण सामाजिक भेदभाव बढ़ने लगा। अंग्रेजों द्वारा बनाई गई इस व्यवस्था को हम नीचे दिए गए चित्र के माध्यम से समझ सकते हैं :-
जबकि सनातन धर्म कहता है कि चारों वर्ण,
जन्म के आधार पर नहीं अपितु व्यक्ति के स्वभाव के आधार पर बनाए गए थे। मूलतः व्यक्ति के अनेक प्रकार के स्वभाव देखे जा सकते हैं। जैसे किसी में मार्गदर्शन देने की योग्यता होती है, जिसे हमनें ब्राह्मण कहा। किसी के शरीर में शक्ति होती है जिसका प्रयोग राष्ट्र रक्षा के लिए होता है,
जिसे हमनें क्षत्रिय कहा। किसी का मस्तिष्क व्यापार में रेहता है,
वह देश की आर्थिक व्यवस्था को सशक्त करने का कार्य करता है,
जिसे हमनें वैश्य कहा। किसी का स्वभाव सहयोगात्मक होता है। वह कुछ भी कार्य कर लेगा इसीलिए वह सभी की सहायता करता है, जिसे हमनें शूद्र कहा। इन्हें स्वभाव के आधार पर वर्गीकृत किया गया था ना कि जन्म के आधार पर!
प्रत्येक का महत्व एक दूसरे के लिए था,
और अगर समाज में किसी एक भी कमी होगी तो वह उसी अपंग शरीर की भांति होगा जिसका कोई अंग कार्य नहीं करता। इसे हम निम्न बने हुए चित्र से समझ सकते हैं:-
अब जानते हैं कि वैदिक काल में जाति किसे कहते थे।
किसी भी वस्तु के उद्गम के आधार पर उसकी जातियाँ तय होती थीं, पर इसका अर्थ भी अंग्रेजों और वामपंथियों द्वारा बनाई गई जातियों के विपरीत था। न्याय सूत्र कहता है कि:-
समानप्रसवात्मिका जातिः।।
अर्थात:- जिनके जन्म का मूल स्त्रोत एक होता है, अर्थात जिनका जन्म लेने का तरीका एक समान है,
जो किसी अन्य जाति में परिवर्तित नहीं हो सकते, जिनकी शारीरिक बनावट एक जैसी है। उन्हें एक प्रकार की जाति कहा जाता है।
ऋषियों द्वारा प्राथमिक तौर पर जन्म-जातियों को चार स्थूल विभागों में बांटा गया है:-
उद्भिज:- अर्थात धरती में से उगने वाले जैसे पेड़,
पौधे, लता आदि।
अंडज:- अर्थात अंडे से निकलने वाले जैसे पक्षी,
सर्प आदि।
पिंडज:-
अर्थात स्तनधारी- मनुष्य और पशु आदि।
उष्मज:- अर्थात तापमान तथा परिवेशीय स्थितियों की अनुकूलता के योग से उत्त्पन्न होने वाले- जैसे सूक्ष्म जीवाणु आदि।
हर जाति विशेष के प्राणियों में शारीरिक अंगों की समानता पाई जाती है। एक जन्म-जाति दूसरी जाति में कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न जातियाँ आपस में संतान उत्त्पन्न कर सकती हैं। अतः जाति ईश्वर निर्मित है।
विविध प्राणी जैसे हाथी,
सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियाँ हैं। इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक जाति है। ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियाँ नहीं हो सकती हैं क्योंकि न तो उनमें परस्पर शारीरिक बनावट का भेद है और न ही उनके जन्म स्त्रोत में भिन्नता पाई जाती है। अब यहाँ जाति का अर्थ वह नहीं है जो अंग्रेजों ने बताया था।
दरअसल हमको आदत हो गई है अंग्रेजी भाषा को आधुनिक समझने की! अगर हमसे कोई बात अंग्रेजी में कही जाए तो हम आसानी से उसे मान लेंगे परंतु वही बात हिन्दी या संस्कृत में कही जाए तो सर पर पहाड़ टूट जाए! बहुत अच्छी सोच बना ली है हमनें।
अगर "Species" कहा जाए तो ठीक है,
पर "जाति" कह दिया जाए तो जन्म के आधार पर भेद-भाव होता है।
अगर "Employee" कह दिया जाए तो ठीक है, पर शूद्र कह दिया जाए तो शोषण हो रहा है। इस सोच को बदलना होगा,
हमारे दिमाग में अब तक जो भी भरा गया वो सब मिटाना होगा, नहीं तो समाज बंटता चला जाएगा, और समाज को बांटने वाले अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।
हमारा दुर्भाग्य देखिए कि आज वेदों की इन मौलिक शिक्षाओं को हमनें भुला दिया है, जिन्हें हमारी संस्कृति की आधारशिला समझा जाता है। आज हम जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था को मानने तथा तथाकथित शूद्र समझी जाने वाली जातियों में जन्में व्यक्तियों के साथ भेद-भाव पूर्ण व्यवहार आदि करने की गलत अवधारणाओं में हम फँस गए हैं।
तथाकथित कम्युनिस्ट वामपंथी समाज सुधारकों की भ्रामक कपोल कल्पनाओं ने पहले ही समाज में अलगाव के बीज बो कर अत्यंत क्षति पहुंचाई है। दुर्भाग्यवश दलित कहे जाने वाले लोग खुद को समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ महसूस करते हैं। इस का एकमात्र समाधान यही है कि हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा, अर्थात हमें वेदों की ओर लौटना होगा और हमारी पारस्परिक समझ को पुनः स्थापित करना होगा।
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