जब बाली और सुग्रीव की भिड़ंत हो रही थी । तब सुग्रीव जी को लगा कि अब बाली मुझे नहीं छोड़ेगा। मेरा अंत समय आ गया है। तब सुग्रीव जी ने अपना अंत समय जानकर सब चतुराई और कपट का त्याग करके भगवान पर आश्रित हुए । सुग्रीव जी ने जैसे ही कपट का त्याग किया। भगवान ने तुरंत ही वृक्ष की ओट से बाली पर वाण का प्रहार किया। एक ही वाण से बाली का सीना विदीर्ण कर दिया। बाली को उसके पिता इंद्र द्वारा एक रत्न
जटित हार प्रदान किया गया था। जिसे ब्रह्मा जी द्वारा सिद्ध किया गया था। कि इसे पहनकर तुम जिससे लड़ोगे, उसकी आधि शक्ति तुम्हारे में आ जाएगी। इसलिए बाली अजेय था। उसे कोई परास्त नहीं कर सकता था। इसीलिए भगवान बाली के सम्मुख नहीं आए। और वृक्ष की ओट से उसे मारा ।बाली भूमि पर गिर गया। और उसने देखा कि सामने प्रभु श्री राम जी खड़े हैं। बाली ने रामजी को पहली बार देखा। और पहचान गया। कहने लगा प्रभु ।आपका अवतार तो धर्म की स्थापना के लिए हुआ है। फिर आपने मुझे अधर्म पूर्वक क्यों मारा?
धर्म हेतु अवतरेहु गोंसाई।
मारेहु मोहि ब्याध की नाई।।
सुग्रीव तुम्हारा मित्र हो गया, और मैं बैरी हो गया। मेरा क्या अपराध था? जो आपने मुझे इस तरह छुपकर एक बहेलिये की भांति मारा।?
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा।
अवगुन कवन नाथ मोहि मारा।।
राम जी कहने लगे बाली। तुम धर्म और अधर्म की बात करते हो। इसका मतलब तुम्हें धर्म का ज्ञान है। बाली ने कहा ।ज्ञान है तभी तो आपसे कह रहा हूं ।रामजी ने कहा जब तुम्हें धर्म का ज्ञान है तो यह कौन सा न्याय है। कि स्वयं तो अधर्म करो। और दूसरे से धर्म की आशा रखो।बाली ने कहा मेरा अधर्म क्या है? क्या अधर्म किया है मैंने? यहां भगवान ने बड़े सावधानी से बाली के प्रश्न का उत्तर दिया।
भगवान जानते थे। यदि मैं कहूंगा कि तुम्हारे में यह अवगुण है दोष है। तो यह तुरंत कहेगा। सुग्रीव भी मेरा भाई है ।और जो अवगुण और दोष मेरे में है वह तो उसमें भी है। इसलिए भगवान ने अपनी बात को थोड़ा घुमा कर कहा। सुन बाली।
अनुज प्रिया भगिनी सुत नारी
सुन सठ यह सब कन्या चारी।
छोटे भाई की पत्नी, पुत्र वधू, बहन ,और कन्या, यह चारों एक समान है ।इन पर जो कू दृष्टि रखने वाला हो उसे मार देने में कोई पाप नहीं है।
बाली ने कहा यह तो ठीक है। इनके प्रति कोई कुदृष्टि रखता है तो उसे मारने में कोई पाप नहीं है। आप ठीक कह रहे हो प्रभु ।जो इनके प्रति कुदृष्टि रखता हो उसके लिए यह नियम है।किंतु क्या मैं ऐसा हूं? क्या मैं इनपर कू दृष्टि रखने वाला लगता हूं आपको।?आप तो मेरा अपराध बताइए? मैंने क्या अपराध किया है? रामजी कहने लगे बाली तू बड़ा अभिमानी है।तुझे अपने बल का अभिमान घमंड है ।
मूढ़ तोहि अतिशय अभिमाना।।
नारी सिखावन करसि न काना।।
तूने अपनी पत्नी की बात नहीं मानी। जबकि तुम्हारी पत्नी तारा ने तुम्हें समझाया था। कि सुग्रीव जिन पर आश्रित है वह भगवान है। फिर भी तुमने उसका कहना नहीं माना ।और अपने घमंड के बल पर सुग्रीव से लड़ने आ गया।
बाली ने कहा क्या मेरा केवल यही अपराध है कि मैंने अपनी पत्नी की बात नहीं मानी?
मैं घमंडी हूं?
बुरा मत मानना प्रभु ,एक बात कहूं।? आपके पिता श्री महाराज दशरथ जी ने पत्नी की ही बात मानकर कौनसा सुख भोग लिया।?
मुझे नहीं लगता है कि समाज ने उनके इस निर्णय की प्रशंशा की हो। कभी कभी पत्नी की बात न मानने में भी हित हो जाता है जैसा कि मेरा हुआ है।
बाली की बातें सुनकर रामजी मन ही मन विचार करने लगे।देखो अपनी ग़लती को न स्वीकार करने वाला व्यक्ति कैसे कैसे कुतर्क लगाता है।अभिमानी की भी यही पहचान है। अपनी ग़लती स्वीकार नहीं करता है।
बाली आगे भी तर्क देता रहा।
प्रभु अच्छा ही हुआ कि मैंने अपनी पत्नी की बात नहीं मानी ।यदि मान लेता तो आज आपके चरणों के दर्शन कैसे हो पाते। कभी कभी पत्नी की बात नहीं मानने में भी हित है।यहां आकर मैं अनाथ से सनाथ हो गया हूं।अपनी मौत मरता तो पता नहीं मैं कहां जाता। किंतु आपके हाथों मर कर अब मुझे चिंता नहीं है। कि मैं कहां जाऊंगा। अब यह जिम्मेदारी आपकी है। कि मुझे कहां भेजोगे।आज मैंने अपनी पत्नी की बात ना मानकर अच्छा ही किया। आपके द्वारा मुक्त होने का अवसर मुझे मिल गया। भगवान श्री रामजी बाली की बातें सुनकर बड़े भावुक हुए।
बाली कहने लगा प्रभु। आपने केवल सुग्रीव की बातों पर विश्वास कर लिया
एक बार मुझसे भी तो मिल लिये होते। मेरी भी तो राय जान लेते। मैं आपकी सहायता करता। श्री जानकी जी जहां भी होती मैं वहां से उनका पता लगा लेता। मेरे अंदर तो उड़ने की भी शक्ति है। श्री राम जी कहने लगे बाली। सुग्रीव मेरा मित्र है ।और तुम सुग्रीव के शत्रु हो। मित्र का शत्रु तो शत्रु ही होता है। इसलिए मैंने तुम्हें मारा ।और एक कारण है ।हनुमान मेरे भक्त हैं। और मेरा भक्त हनुमान जिनका पक्ष ले लेते हैं। फिर मैं यह नहीं देखता हूं कि कौन प्रिय है। और कौन अप्रिय है। मैं अपने भक्तों का पक्ष लेता हूं ।मैं निष्पक्ष नहीं हूं!
निष्पक्ष तो केवल ब्रह्म है। और जो अपनी भक्ति के द्वारा ब्रह्म को भगवान बना देते हैं। ऐसे भक्तों के मैं वश में रहता हूं ।
बाली कहने लगा। प्रभु मैं आपसे जीत नहीं सकता हूं । आपके सामने मेरी चतुराई चल नहीं सकती है।
क्या आपके द्वारा मारे जाने पर भी मैं अभी भी पापी हूं?
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरि मोर
प्रभु अजहूं मैं पापी अंतकाल गति तोरि।।
बाली की कोमल वाणी सुनकर भगवान ने उसके सिर पर हाथ से स्पर्श किया।
सुनत राम अति कोमल वाणी
बालि शीश परसेउ निज पानी।।
राम जी ने कहा बालि में तुम्हारे शरीर को अचल करदूं।
अचल करौं तनु राखहु प्राना।।
बाली कहने लगा प्रभु, मुनि गण जन्म जन्म तक यत्न करते हैं। किन्तु अंत समय में उनके मुख से राम नहीं निकलता है। और आज अवसर आया है स्वयं भगवान मेरे नेत्रों के सामने हैं ।ऐसा संयोग फिर कब आएगा प्रभु।
जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं।
अन्त राम कहि आवत नाहीं।।
इसलिए मैं अपने प्राणों को रखना नहीं चाहता। अब तो आपसे हाथ जोड़कर एक ही विनती है कि मेरा पुत्र अंगद मेरे ही समान बलशाली है। इसे आप अपना लीजिए ।अपना सेवक बना लीजिए। आप अपने हाथों से इसकी बांह पकड़ लीजिए। तब मैं निश्चिंत हो जाऊंगा। राम जी ने कहा। तुम मुझे ऐसा क्यों कह रहे हो? कि मैं इसकी बांह पकड़ लूं? अंगद को ही क्यों नहीं कहते। कि
वह मेरे चरण पकड़ ले। बाली बड़ी बुद्धिमानी से कहने लगा प्रभु। मैं जानता हूं यदि यह आपके चरण पकड़ेगा, तो कहीं नादानी में चरण छोड़ भी सकता है। किंतु आप कृपा निधान हो ।यदि आप अपने हाथों से इसकी बांह पकड़ लोगे। तो मैं जानता हूं प्रभु। आप कभी इसे छोड़ोगे नहीं। और आपकी छत्रछाया में यह सुरक्षित रहेगा। इस तरह बाली ने अपने पुत्र अंगद को भगवान के शरणागत करा कर प्राण त्याग दिए ।
बाली ने अपने प्राणों का त्याग इस तरह किया। जिस तरह की एक हाथी के गले से पुष्प माला गिरती है और उसे ज्ञात ही नहीं रहता है।
रामचरण दृढ़ प्रीति करि,
बालि कीन्ह तनु त्याग,
सुमन माल जिमि कंठ ते,
गिरत न जानई नाग।।
इसके आगे का प्रसंग अगली पोस्ट में जय श्री राम।।