क्या सती प्रथा का वास्तविक रूप वही है जैसा आज तक हमने पढ़ा या फिर कुछ और?
अगर वास्तविक रूप कुछ और है तो फिर हमें गलत क्यों पढ़ाया गया?
और वह गलत हमारी किताबों में लिखा किसने?
सती प्रथा को जानने से पहले हमें यह जानना पड़ेगा कि वामपंथी इतिहासकारों और लेखकों द्वारा इस प्रथा के पीछे क्या तर्क दिया जाता था और क्या-क्या कारण बताए जाते थे, यह जानना ज्यादा जरूरी है।
पहला तर्क: सती प्रथा के पीछे जो तर्क दिया जाता है उसमें पहला तर्क है माता सती का,
जिन्होंने स्वयं को यज्ञ की अग्नि में भस्म कर लिया था। इस प्रथा का नाम जिनके नाम पर रखा गया वह थीं माता सती।
महादेव और माता सती
माता सती भगवान शिव की अर्धांगिनी थी और प्रजापति दक्ष की पुत्री थीं। अपने पिता द्वारा भगवान शिव का अपमान किए जाने पर माता सती अत्यंत क्रोधित हो गईं और क्रोधावश यज्ञ की अग्नि में स्वयं को भस्म कर लिया।
परंतु यहाँ एक बात सोचने की है, कि माता सती के पति यानी भगवान शिव तो जीवित हैं, हालांकि वे भगवान हैं,
शंभू (अर्थात स्वयं उत्पन्न होने वाला) हैं,
उनका कोई अंत नहीं है,
उनकी कोई शुरुआत नहीं है। अब इन वामपंथी इतिहासकारों द्वारा दिया गया तर्क तो तर्कहीन हो गया।
दूसरा,
माता सती के साथ किसी ने जबरदस्ती नहीं की थी। उन्होंने पति के अपमान को स्वयं का अपमान मानकर अपनी इच्छा से स्वयं को भस्म किया था। जिस प्रथा के नाम का आधार वामपंथी इतिहासकारों ने माता सती को बनाया था वह आधार ही आधारहीन हो गया!
जब इनका पहला तर्क काम में नहीं आया तो इन्होंने दिया दूसरा तर्क, वह क्या था?
दूसरा तर्क: अंग्रेजी इतिहासकारों द्वारा जो दूसरा तर्क दिया जाता था वह तर्क था जौहर का। पहले के राजघरानों में जब युद्ध करते वक्त पति की मृत्यु हो जाती थी,
तो पत्नी अपने मान सम्मान को दरिंदे आक्रमणकारियों से बचाने के लिए हवन कुंड में कूदकर स्वयं को भस्म कर लेती थी। और यह आक्रमणकारी और कोई नहीं बल्कि अंग्रेज और मुगल ही थे।
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रानियों द्वारा किया जाने वाला जौहर
राजघराने की स्त्रियों को देखकर समाज की अन्य स्त्रियों ने भी अपने पति की मृत्यु के बाद, अपनी मान मर्यादा को आक्रमणकारियों से बचाने के लिए स्वयं को अग्नि में भस्म करना शुरू कर दिया,
वह भी बिना किसी दबाव में अपनी स्वयं की इच्छानुसार।
लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने इस बात का बतंगड़ बना कर, गलत ढंग से पेश कर भारतीयों के दिमाग में डाला कि भारत में स्त्री को जबरदस्ती आग में झोंका जाता है और उसको अपने पति की चिता के साथ जिंदा जलाया जाता है।
परंतु अब इन अंग्रेजी इतिहासकारों से हमें पूछना चाहिए कि जब स्त्रियों की इतनी ही चिंता थी तो अंग्रेजों द्वारा आक्रमण किया ही क्यों जाता था? युद्ध में उनके पतियों को मारा ही क्यों जाता था?
अब इस तथ्य के भी आधारहीन हो जाने के कारण अंग्रेजी इतिहासकारों द्वारा जो अन्य तर्क दिया जाता था वह देखते हैं क्या था!
तीसरा तर्क: एक अन्य तर्क जो अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा दिया जाता है वह है महाराज पांडु और उनकी पत्नी श्रीमती माद्री जी का।
जब महाराज पांडु की मृत्यु हुई तो उनकी पत्नी माद्री जी ने उनकी मृत्यु का कारण स्वयं को समझा जिसके पश्चाताप में उन्होंने अपने पति की चिता के साथ स्वयं को भस्म कर लिया।
महाराज पांडु को किंदम ऋषि का श्राप था कि यदि वह कामांध होकर किसी भी स्त्री का स्पर्श करेगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी।
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माद्री और पाण्डु
महाभारत के आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत, अध्याय 124 में पाण्डु की मृत्यु और माद्री की चितारोहण की कथा का वर्णन है।
महाराज पांडु अपनी प्रिय पत्नी माद्री के साथ वन में घूम रहे थे। पलाश, तिलक,
आम, चम्पा,
पारिभद्रक तथा और भी बहुत से वृक्ष - फूलों की समृद्धि से भरे हुए थे। जो उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे।
नाना प्रकार के जलाशयों तथा कमलों से सुशोभित उस वन की मनोहर छटा देखकर राजा पाण्डु के मन में काम का संचार हो गया। जैसे ही उन्होंने कामांध होकर अपनी पत्नी माद्री को स्पर्श किया, वैसे ही उनकी मृत्यु हो गई।
उनकी पत्नी माद्री भी उनसे काफी प्रेम करती थीं, इसी कारणवश वह विलाप करने लगीं। जब इस बात की खबर कुंती को लगी तो वह भी रोने लगी।
तब माद्री और कुंती, दोनों ने ही अपने पति के प्रेम के कारण स्वयं को उनकी चिता के साथ जलाने का निर्णय लिया। हमें दोनों के बीच हुए संवाद को देखना चाहिए!
महं ज्येष्ठा धर्मपत्नी ज्येष्ठं धर्मफलं मम।
अवश्यम्भाविनो भावान्मा मां माद्रि निवर्तय ।। 23 ।।
अन्विष्यामीह भर्तारमहं प्रेतवशं गतम्।
उत्तिष्ठत्वं विसृज्यैनमिमान् पालय दारकान् ।। 24 ।।
अवाप्य पुत्राँलग्धात्मा वीरपत्नीत्वमर्थये।
(महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 124)
कुन्ती ने कहा, “माद्री! मैं इनकी ज्येष्ठ धर्म पत्नी हूँ,
अतः धर्म के ज्येष्ठ फल पर भी मेरा ही अधिकार है। जो भविष्यम्भावी बात है,
उससे मुझे मत रोको। मैं मृत्यु के वश में पड़े हुए अपने स्वामी का अनुगमन करूँगी। अब तुम इन्हें छोड़कर उठो और इन बच्चों का पालन करो। पुत्र को पाकर मेरा लौकिक मनोरथ पूर्ण हो चुका है,
अब मैं पति के साथ दग्ध होकर वीर पत्नी का पद पाना चाहती हूँ।
अहमेवानुयास्यामि भर्तारमपलायिनम्।
न हि तृप्तास्मि कामानां ज्येष्ठा मामनुमन्यताम् ।। 25 ।।
(महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 124)
माद्री बोली- रणभूमि से कभी पीठ न दिखाने वाले अपने पति देव के साथ मैं ही जाऊँगी; क्योंकि उनके साथ होनेवाले काम भोग से मैं तृप्त नहीं हो सकी हूँ आप बड़ी बहिन हैं, इसलिये मुझे आपको आज्ञा प्रदान करनी चाहिये।
मां चाभिगम्य क्षीणोऽयं कामाद् भरतसत्तमः।
तमुच्छिन्द्यामस्य कामं कथं नु यमसादने ।। 26 ।।
(महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 124)
ये भरत श्रेष्ठ मेरे प्रति आसक्त हो मुझसे समागम करके मृत्यु को प्राप्त हुए हैं; अतः मुझे किसी प्रकार परलोक में पहुँचकर उनकी उस काम वासना की निवृत्ति करनी चाहिये।
न चाप्यहं घर्तयन्ती निर्विशेषं सुतेषु ते।
वृत्तिमार्ये चरिष्यामि स्पृशेदेनस्तथा च माम् ।। 27 ।।
(महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 124)
आर्ये! मैं आपके पुत्रों के साथ अपने सगे पुत्र की भांति बर्ताव नहीं कर सकूँगी उस दशा में मुझे पाप लगेगा।
तस्मान्मे सुतयोः कुन्ति वर्तितव्यं स्वपुत्रयत्।
मां च कामयमानोऽयं राजा प्रेतवशं गतः ।। 28 ।।
(महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 124)
अतः आप ही जीवित रहकर मेरे पुत्रों का भी अपने पुत्रों के समान ही पालन कीजियेगा। इसके सिवा ये महाराज मेरी ही कामना रखकर मृत्यु के अधीन हुए हैं।
इसके बाद ऋषि गणों ने उन्हें समझाते हुए कहा कि :-
ऋषयस्तान् समाश्वास्य पाण्डवान् सत्यविक्रमान्।
ऊचुः कुन्तीं च माद्रीं च समाश्वास्य तपस्विनः।।
सुभगे वालपुत्रे तु न मर्तव्यं कथंचन।
पाण्डवांश्चापि नेष्यामः कुरुराष्ट्रं पंग्तपान्।।
अधर्मेष्वर्थजातेषु धृतराष्ट्रश्च लोभवान्।
स कदाचिन्न वर्तेत पाण्डवेषु यथाविधि।।
(महाभारत, आदि पर्व, अध्याय 124)
वैशम्पायन जी कहते हैं, तदनन्तर तपस्वी ऋषियों ने सत्य पराक्रमी पाण्डवों को धीरज बँधाकर कुन्ती और माद्री को आश्वासन देते हुए कहा, “सुभगे ! तुम दोनों के पुत्र अभी बालक हैं, अतः तुम्हें किसी प्रकार देह-त्याग नहीं करना चाहिये। हम लोग शत्रुदमन पाण्डवों को कौरव राष्ट्र की राजधानी में पहुँचा देंगे। राजा धृतराष्ट्र अधर्ममय धन के लिये लोभ रखता है,
अतः वह कभी पाण्डवों के साथ यथायोग्य बर्ताव नहीं कर सकता। इसीलिए आपको जीवित रहकर अपने बच्चों की देखभाल करनी चाहिए।
परंतु ऋषि-मुनियों के समझाने के बाद महारानी कुंती तो समझ गईं, लेकिन माद्री नहीं समझी और उन्होंने प्रेम वश महाराज पाण्डु की चिता के साथ स्वयं को भस्म कर लिया।
परंतु यहां भी देखा जाए तो उनको किसी ने विवश नहीं किया था और ऋषि-मुनियों के द्वारा समझाने के बाद भी उन्होंने ऐसा किया क्योंकि वह उनसे प्रेम करती थीं।
परंतु धर्म के ठेकेदारों ने इस बात को गलत ढंग से प्रस्तुत किया और सनातन धर्म को बदनाम करने की कोशिश की।
वहीं जब बात रोमियो-जूलियट की आती है, जब बात लैला-मजनू की आती है,
जब बात सलीम-अनारकली की आती है,
तो प्रेम अंधा हो जाता है क्योंकि इन लोगों ने भी एक दूसरे के लिए प्रेम होने के कारण अपनी जान दी थी। परंतु जब बात सनातन धर्म की आती है तो प्रेम में भी अंधविश्वास नजर आता है। बड़े तर्कहीन तर्क दे देते थे अंग्रेज, और हम उन्हें बिना सबूतों के आधार पर,
बिना पढ़े मान भी लेते थे,
क्योंकि गुलामी की आदत तो हम में ही थी ना!
ऊपर दिए गए तर्कों में क्या कहीं भी ऐसा लगा की स्त्री को जबरदस्ती उसके पति की चिता के साथ जलाया जाता था, अपितु वह स्वयं की इच्छा से यह कार्य करती थीं।
परंतु इन वामपंथी इतिहासकारों और लेखकों द्वारा हमारे वेदों में जो लिखा है हमारे ग्रंथों में लिखा है वह सब उलट-पुलट करके हमें बताया गया जबकि लिखा कुछ और ही था।
हमने भी यह जानने की कभी कोशिश ही नहीं करी कि आखिर ऐसा क्यों होता था। इसके पीछे का कारण क्या था। हमारे सनातन धर्म में तो ऐसा कहीं पर भी नहीं लिखा अपितु यहां तो नारियों का सम्मान करना ही सिखाया गया है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।
(मनुस्मृति 3/56)
अर्थात: जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती है, उनका सम्मान नहीं होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
अब देखते हैं कि ऋग्वेद में विधवा नारी के बारे में क्या लिखा है:
उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि ।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सम्बभूथ ।। 8 ।।
(ऋग्वेद,
10 वा मंडल, सूक्त 18)
अर्थात: (पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा पत्नी से) उठ! तुझे संसार वापस बुला रहा है, तू किसका पक्ष ले रही है जो मृत शरीर है। जिसने इस संसार में तेरा हाथ पकड़ा था और आकर्षित करता था वह मुक्त होकर चला गया।
सनातन धर्म के किसी भी ग्रंथ में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है कि स्त्री को उसके पति की मृत्यु के बाद उसकी चिता के साथ जला देना चाहिए। ना ही भारत के पुराने इतिहास में ऐसी घटनाएं हुई हैं। आप इतिहास के पन्नों को टटोल कर देख सकते हैं बशर्ते वह वामपंथी इतिहास ना हो। यह तो अंग्रेजों द्वारा बोला गया एक सफेद झूठ था जिसे भारत के कुछ ठेकेदारों ने बिना सोचे समझे सनातन धर्म को बदनाम करने के लक्ष्य के साथ अपना लिया।
सनातन धर्म सदैव नारियों का सम्मान करना सिखाता है कोई भी शुभ कार्य बिना स्त्रियों के संपूर्ण नहीं होता और यही बात उन अंग्रेजों को हजम नहीं हुई।
इसीलिए उन्होंने हमारी परंपराओं के साथ विक्षेप कर भारत के लोगों को बताया और उनके मन में सनातन धर्म के प्रति हीन भावना उत्पन्न की।
जिन अंग्रेजों के यहां Witch Craft Act,
1542 जैसे कानून रहे हैं, जिसके तहत किसी भी नारी को बिना सोचे समझे, चुड़ैल घोषित करके जिंदा जला दिया जाता था। जिन अंग्रेजों के यहां नारियों को कुर्सी मेज की तरह वस्तु समझा जाता था।
प्लेटो जैसे महान दार्शनिकों का कहना था कि नारियों में आत्मा नहीं होती इसीलिए अंग्रेजों के यहां नारियों को मताधिकार नहीं था, न्यायालय में उनकी गवाही नहीं सुनी जाती थी।
उस देश के नागरिक भारत को यह ज्ञान देते हैं कि भारत की नारियां शोषित हैं।
जिस समय अंग्रेजों के यहां यह कानून थे, उस समय भारत में रानी अहिल्याबाई, रानी चेन्नम्मा, रानी दुर्गावती जैसी महान रानियाँ रही हैं, जिन्होंने अपने-अपने राज्यों में शासन तक किया है, उस भारत की नारियां कभी पतित नहीं हो सकतीं।
रामायण,
महाभारत, गीता,
मनुस्मृति कहीं भी इस प्रथा का उल्लेख नहीं मिला,
ना तो दशरथ महाराज के पश्चात माँ कौशल्या, सुमित्रा,
कैकई ने सती का अवलम्ब किया,
ना ही महाभारत में सत्यवती और कुंती ने इसको अपनाया। अपितु वे राजमाता बन कर गौरव से जीवित रही।
इतना सब जानने के बाद यह कहना अनुचित होगा कि सनातन धर्म में स्त्रियों का शोषण होता है।
पर मन में एक कौतूहल उठता है कि आखिर सती प्रथा का वास्तविक रूप क्या था?
सती शब्द संस्कृत के "सत" शब्द से पैदा हुआ है। जिसका अर्थ है पवित्र। सती प्रथा का नाम माता सती के द्वारा योगाग्नि में स्वयं को भस्म कर पार्वती के रूप में प्राकट्य की घटना से जुड़ा हुआ है। सबसे पहली बात ये की सती ने योगाग्नि में आत्माहुति किसी के दबाव में नहीं दिया था। अपितु स्वेच्छा से दिया था।
सती शब्द भी सत्यीकरण यानि पवित्रीकरण से ही निकला है, और पवित्र करने की प्रक्रिया अग्नि की है। इस शब्द विशेष का किसी विधवा के पति के शव के साथ दाह से कोई संबंध नहीं था।
नवरात्रि के समय जब माता अम्बे जी की आरती होती है तो उस पर ध्यान दीजियेगा। उस आरती की कुछ पंक्तियाँ आपको दिखाता हूँ :-
सब की बिगड़ी बनाने वाली, लाज बचाने वाली,
सतिओं के सत को संवारती,
ओ मैया हमरें तेरी आरती।।
यहाँ “सतिओं के सत को संवारती” पंक्ति का अर्थ है कि जब किसी की पत्नी अपने पति के मृत्यु के बाद सती होती थी तो माता अम्बे उसकी रक्षा करती थीं। माता अम्बे उनकी सात्विकता को बचाए रखती थीं तथा उनकी रक्षा करती थीं। अब अगर स्त्री को जिंदा जला दिया जाता था तो उसकी रक्षा का सवाल ही नहीं उठता! उसकी सात्विकता को कोई कैसे बचाएगा जब वह जिंदा ही नहीं रहती थी। यहाँ विरोधाभास उत्पन्न होता है!
माता अम्बे जी की यह आरती बहुत सालों से बोली जा रही है, अर्थात उस समय महिलाओं को सती के रूप में जलाया नहीं जाता था। वह मंदिर में रहा करतीं थीं जहाँ उनकी पूजा की जाती थी। और माता अम्बे स्वयं उनकी रक्षा करती थीं।
गुप्तकाल में 510
ई. के दौरान सती प्रथा का पहला अभिलेखीय साक्ष्य देखा गया है। इस अभिलेख में महाराजा भानुगुप्त का वर्णन किया गया है जिनके साथ युद्ध में गोपराज भी मौजूद थे। गोपराज वीर गति को प्राप्त हुए जिसके बाद उनकी पत्नी ने सती होकर अपने प्राण त्याग दिए थे। परन्तु यह किसी दबाव में नहीं अपितु स्वेच्छा का विषय था।
सनातन धर्म किसी को बाधित नहीं करता, अपितु सनातन में सदैव स्त्रियों को ऊपर का दर्जा दिया गया है। और जो आचरण स्त्रियों के लिए बताया गया है,
वही आचरण पुरुषों को करने के लिए भी कहा है। तुलसीदास जी कहते हैं कि :-
एक नारिब्रतरत सब झारी।
ते मन बच क्रम पतिहितकारी।।
(उत्तर कांड, रामचरितमानस)
अर्थात: यहाँ तुलसीदास जी रामराज्य का वर्णन करते
हुए कहते हैं कि राम राज्य में सभी पुरुष और स्त्री सामान थे,
अर्थात पुरुष भी एक नारी व्रत का पालन करते थे। यहाँ पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है।
तो क्या अब भी वामपंथी सनातन धर्म पर सवाल उठाएंगे?
जैसा आपने विभिन्न तस्वीरों में देखा होगा, वो गलत रूप है,
जो हमें आज तक बताया गया,
जिसके कारण अनेकों स्त्रियों की जान गई। भारत के कई आदिवासी इलाकों में (जैसे गोंड समुदाय के लोग, भील समुदाय के लोग) सती प्रथा है किंतु इसका प्रकार देखें!
वहाँ विधवा स्त्री संस्कृत में मंत्र पढ़ती हुई पति की चिता के चक्कर काटती है और हर चक्कर में एक प्रश्न अपने हर संबंधी से करती है जैसे पुत्र, पुत्री, भाई,
समाज, पुरोहित आदि और प्रश्न यह होता है कि क्या आप मेरा भरण पोषण करेंगे, अब मैं विधवा हूँ।
अब यहां कुछ लोग कहेंगे कि आज स्त्री आत्मनिर्भर है उसे अपने भरण पोषण के लिए किसी पर निर्भर रहने की क्या आवश्यकता?
पर हमें एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि आत्मनिर्भरता आध्यात्मिक रूप से सम्भव है परंतु भौतिक रूप से हमें अपने परिजनों पर निर्भर रहना ही पड़ता है। आत्मनिर्भरता का अर्थ यह नहीं कि हम अपने समाज को छोड़कर अपने अंदर निवास करें, हमें समाज में तो रहना ही पड़ेगा। यदि कोई हाँ कहता है तो वह प्रदक्षिणा रोक देती है, किंतु जब कोई सहमत नहीं होता तब वह 7 प्रदक्षिणा कर के गाँव के मंदिर जाती है और वहीं ईश्वर चरण में जीवन यापन करती है और इस स्त्री को सती कहते हैं। यही नहीं जब सारा समाज मन्दिर आता है तब उस स्त्री की भी चरण वंदना करता है और उसे देवी मानकर सम्मान भी दिया जाता है।
यह है वास्तविक सती प्रथा का सत्य।