#हूल_दिवस इतिहास की एक चर्चित घटना, जो आज के दिन 168 वर्ष पूर्व घटित हुई थी।
आज जनजातीय समाज के गौरव संथाल हूल के नायक सिदो-कान्हू का बलिदान दिवस है। संताल हूल के नायक अमर बलिदानी सिदो-कान्हू
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में जनजातीय समाज की अग्रणी भूमिका रही है। जनजातीय नायकों ने अपनी मातृभूमि को विदेशी दासता से मुक्त कराने के लिए अपना संपूर्ण न्योछावर किया है। 168 वर्ष पहले 30 जून 1855 में तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी वर्तमान में झारखंड के संताल परगना में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में किया गया हूल आंदोलन का स्वतंत्रता संग्राम में विशिष्ट स्थान है। संताल हूल ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की पीठिका तैयार की थी।
हूल का अर्थ होता है अन्याय के विरूद्ध क्रांति का आव्हान। अंग्रेजों ने संताल जनजातियों के भू- स्वामियों के लिए कड़े नियम बना दिए. जिस कारण बड़ी मात्रा में जनजातियों की भूमि हस्तांतरित होने लगी। लगान को एकाएक तीन गुणा कर दिया गया। लगान को चुकता करने में धीरे-धीरे लोग कर्ज के जाल में फंस गए। ब्रिटिश पोषित कर्जदाताओं ने चालबाजी कर इन पर मुकदमा भी किया, अधिकांश मुकदमें में संतालों की हार हुई। इस घटना के लोगों का ब्रिटिश न्यायपालिका से विश्वास पूर्णतया उठ गया और खुद की अस्मिता और सुरक्षा के लिए विद्रोह का रूख अख्तियार किया।
झारखंड राज्य के वर्तमान साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव के निवासी चुन्नी मांडी जो वहां के ग्रामप्रधान थे के चार पुत्र सिदो कान्हू, चांद और भैरव में से सिदो को बोंगा ने स्वप्न में कहा कि 'जुमदार, महाजन, पुलिस, राजदेन आमला को गुजुकमाड़' जिसका अर्थ है जमींदार, महाजन, पुलिस और सरकार के आमला का नाश हो। चूंकि संताल लोग बोंगा की ही पूजा अर्चना करते थे। इसलिए इस बात पर विश्वास कर चारो भाइयों ने इस स्वप्न को प्रचारित किया और लोगों को यह बताया कि अब जमींदार, पुलिस, महाजन और सरकारी अमलों का विनाश होने वाला है।
30 जून 1855 में भोगनाडीह में संतालों की एक सभा हुई जिसमें 400 गांवों के पचास हजार से अधिक लोग एकत्र हुए सिदो-कान्हू की अगुआई में संतालों ने मालगुजारी नहीं देने के साथ ही 'करो या मरो, अंग्रेज हमारी माटी छोड़ो' का ऐलान किया। इसके लिए शालवृक्ष की टहनी घुमाकर क्रांति का संदेश घर-घर पहुंचा दिया गया। संतालों ने पहला आक्रमण उनके विरूद्ध किया जिन्होंने उन्हें धोखा देकर अकूत धन अर्जित किया। आक्रमण में पाकुड़ के लिट्टीपाड़ा और बरहेट के कुसमा के महाजनों को लूटा गया।
धीरे-धीरे आंदोलन बढ़ते-बढ़ते गया। अंग्रेजों की तरफ नेतृत्व जनरल लॉयर्ड ने किया जो आधुनिक हथियार और गोला बारूद से परिपूर्ण थे। इस मुठभेड़ में महेश लाल एवं प्रताप नारायण नामक दरोगा की हत्या कर दी गई, जिससे अंग्रेजों में भय का माहौल बन गया। शासन पर विजय से उत्साहित एक दिन 50,000 संताल वीर अंग्रेजों को मारते-काटते कोलकाता की ओर चल दिए। खोलने वाला बताया। यह देखकर शासन ने मेजर बूरी के नेतृत्व में सेना भेज दी। पांच घंटे के खूनी संघर्ष में शासन की पराजय हुई और संताल वीरों ने पाकुड़ किले पर कब्जा कर लिया।
संतालों के भय से अंग्रेजों ने बचने के लिए पाकुड़ में मार्टिलो टावर का निर्माण कराया था जो आज भी झारखंड के पाकुड़ जिले में स्थित हैं। इस युद्ध में सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे गए जिससे कम्पनी के अधिकारी घबरा गए। अतः पूरे क्षेत्र में 'मार्शल लॉ लगाकर उसे सेना के हवाले कर दिया गया। अंग्रेज सेना के पास अत्याधुनिक हथियार थे, जबकि संताल वीरों के पास तीर-कमान जैसे परम्परागत हथियार। अतः बाजी पलट गई और चारों ओर खून की नदी बहने लगी।
विद्रोहियों पर नियंत्रण पाने के लिए क्रूरतापूर्वक कार्रवाई की जा रही थी और तभी बहराइच में चांद और भैरव को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दिया, तो दूसरी तरफ अंग्रेजों ने फूट डालो राज करो नीति का अनुसरण करते हुए सिदो और कान्हू को पकड़ कर भोगनाडीह गांव में ही पेड़ से लटका कर 26 जुलाई 1855 फांसी दे दी गई। इस युद्ध में लगभग 20 हजार वनवासी वीरों ने प्राणाहुति दी।
प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार इंटर ने युद्ध के बारे में अपनी पुस्तक 'एनल्स ऑफ रूरल बंगाल में लिखा है, 'संतालों को आत्मसमर्पण जैसे किसी शब्द का ज्ञान नहीं था। जब तक उनका ड्रम बजता रहता था, वे लड़ते रहते थे। जब तक उनमें से एक भी शेष रहा, वह लड़ता रहा। ब्रिटिश सेना में एक भी ऐसा सैनिक नहीं था, जो इस साहसपूर्ण बलिदान पर शर्मिन्दा न हुआ हो। ' संताल परगना में 1855 में हुए विद्रोह को कार्ल मार्क्स ने भी अपनी किताब 'नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री' में 'जनक्रांति' माना है। संताल हूल का इतना व्यापक असर था कि ब्रिटिश के अखबारों ने भी इस विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के लिए आंख खोलने वाला बताया।
1856 के इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज अखबार में एक स्केच छपा था, जिसमें अंग्रेजों से संथालों का संघर्ष दर्शाया गया था। इस विद्रोह को कुचलने वालों में शामिल ब्रिटिश सेना के मेजर जर्विस ने उस समय लिखा था कि उन विद्रोहियों को जैसे समर्पण का अर्थ ही नहीं पता था। जब तक उनके नगाड़े बजते रहते, वे हमारी गोलियों के भी सामने खड़े रहते। नगाड़े बंद होते तो वे कुछ पीछे हटते। नगाड़े फिर शुरू होते ही फिर लड़ाई शुरू हो जाती।
प्रसिद्ध इतिहासकार बीपी केशरी कहते हैं कि संथाल हूल ऐसी घटना थी, जिसने 1857 के संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार की थी। इस आंदोलन के बाद ही अंग्रेजों ने संथाल क्षेत्र को वीरभूम और भागलपुर से हटा दिया। 1855 में ही संथाल परगना को ‘नॉन रेगुलेशन जिला’ बनाया गया। क्षेत्र भागलपुर कमिश्नरी के अंतर्गत था, जिसका मुख्यालय दुमका था। 1856 में पुलिस रूल लागू हुआ। 1860-75 तक सरदारी लड़ाई, 1895-1900 ई. तक बिरसा आंदोलन इसकी अगली कड़िया थीं। दुर्भाग्य की बात है कि जिस हूल में दस हजार से अधिक सेनानी बलिदान हुए उसे किस प्रकार षड़यंत्रपूर्वक संथाल विद्रोह तक सीमित कर दिया गया, जबकि यह विद्रोह देश की आजादी के लिए ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध लड़ी गई।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं एवं जनजातीय मामलों के जानकार हैं।)