बुंदेल केसरी महाराजा छत्रसाल
आज की हमारी वीरगाथा है “बुंदेल केसरी” के नाम से विख्यात “महाराज छत्रसाल” के बारे में, जिन्हें उत्तराधिकार में सत्ता नहीं वरन ‘शत्रु और संघर्ष’ ही मिले थे। उन्होंने बड़ी निपुणता से इन सबका सामना किया और विजयी बनकर उभरे। आइए संक्षेप में पढ़ें बुंदेल केसरी छत्रसाल के बारे में जिन्होंने वस्तुतः जीवनभर स्वतंत्रता के लिए ही सतत संघर्ष किया, मातृभूमि की रक्षा के लिए कई मौकों पर प्राण दांव पर लगा दिया लेकिन कभी भी दुश्मनों के समक्ष झुके नहीं।
● कौन थे महाराजा छत्रसाल!
बुंदेलखंड के शिवाजी के नाम से प्रख्यात महाराज छत्रसाल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया (3) संवत 1706 विक्रमी तदनुसार दिनांक 17 जून, 1648 ईस्वी को एक पहाड़ी ग्राम में हुआ था। उनकी माताजी का नाम लालकुंवरि था और पिता का नाम था चम्पतराय। चम्पतराय बड़े वीर व बहादुर योद्धा थे। इतिहासकार लिखते हैं कि चम्पतराय के साथ युद्ध क्षेत्र में लालकुंवरि भी साथ-साथ रहती और अपने पति को उत्साहित करती रहतीं। गर्भस्थ शिशु छत्रसाल तलवारों की खनक और युद्ध की भयंकर मारकाट के बीच बड़े हुए। यही युद्ध के प्रभाव उसके जन्म लेने पर जीवन पर असर डालते रहे। इसके अलावा माता लालकुंवरि की धर्म व संस्कृति से संबंधित कहानियां बालक छत्रसाल को बहादुर बनाती रहीं। अन्याय के प्रति कड़ा प्रतिकार करना और दुश्मन को धूल चटाने के अधिक से अधिक किस्से उन्होंने बचपन से सुने थे। बाल्यावस्था से ही छत्रसाल क्षत्रिय धर्म का पालन कर आतताइयों से मुक्त होकर स्वतंत्र देश में सांस लेना चाहते थे। बालक छत्रसाल मामा के यहां रहते हुए अस्त्र-शस्त्रों का संचालन और युद्ध कला में पारंगत हुए। 10-12 वर्ष की अवस्था तक छत्रसाल कुशल सैनिक बन बड़ी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार हो चुके थे।
लेकिन दुर्भाग्यवश 16 साल की अवस्था में छत्रसाल को अपने माता-पिता की छत्रछाया से वंचित होना पड़ा। इस अवस्था तक उनकी जागीर छिन चुकी थी, फिर भी उन्होंने धैर्यपूर्वक और समझदारी से काम लिया। अपनी मां के गहने बेचकर छोटी सी सेना खड़ी की। जिसका संचालन वो स्वंय करते थे। अत्यंत चतुराई से युद्ध लड़ते हुए और संघर्ष करते हुए उन्होंने अपना भविष्य स्वयं बनाया। वो छोटे-मोटे रियासतों को परास्त करके अपने आधीन कर क्षेत्र विस्तार करते रहे और धीरे-धीरे सैन्य शक्ति बढ़ाते गए। कहते हैं कि एक समय ऐसा भी आया जब दिल्ली तख्त पर विराजमान औरंगजेब भी महाराज छत्रसाल के पौरुष और उनकी बढ़ती हुई सैनिक शक्ति को देखकर चिंतित हो उठा।छत्रसाल की युद्ध नीति और कुशलतापूर्ण सैन्य संचालन से अनेक बार औरंगजेब की सेना को हार माननी पड़ी। युवा छत्रसाल के नेतृत्व में बुंदेलखंड के बड़े साहसी व बहादुर सैनिक प्राण-प्रण से युद्ध में अपना कौशल दिखाने के कारण सदैव विजयी रहे। महाराज छत्रसाल ने धीरे-धीरे अपनी प्रजा को सब प्रकार की सुख-सुविधाएं पहुंचा कर प्रजा का विश्वास प्राप्त कर लिया था।
● शिवाजी महाराज से महाराज छत्रसाल की भेंट
इस समय तक राष्ट्रीयता के आकाश पर छत्रपति महाराज का सितारा चमचमा रहा था। छत्रसाल, शिवाजी महाराज से मिलकर आगे की रणनीति पर चर्चा करना चाहते थे। सन 1668 में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियेां का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की और कहा-
करो देश के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुगलन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषें।
यह वह समय था जब दक्षिण क्षेत्र में मुगलों का शिवाजी महाराज के नाम से पसीना छूटता था। शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौट आए परंतु तत्कालीन बुंदेल भूमि की स्थितियां बिलकुल मिन्न थीं। अधिकांश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे जो मुग़लों के ख़िलाफ़ खड़े होने के पक्ष में नहीं थे। यहां तक कि छत्रसाल के भाई-बंधु भी दिल्ली से भिड़ने को तैयार नहीं थे। स्वयं उनके हाथ में धन-संपत्ति कुछ था नहीं, यह सोच उन्होंने अगल बगल की रियासतों से सम्पर्क किया और उनसे स्वराजय पर मंथन किया। दतिया नरेश शुभकरण ने छत्रसाल का सम्मान तो किया पर बादशाह से बैर न करने की ही सलाह दी। ओरछा नरेश सुजान सिंह ने अभिषेक तो किया पर संघर्ष से अलग रहे। छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने साथ देना स्वीकार नहीं किया तब छत्रसाल ने राजाओं के बजाय जनोन्मुखी होकर अपना कार्य प्रारंभ किया। इतिहासकार पी.माधव लिखते हैं कि चहुंओर से निराश छत्रसाल की मदद उनके बचपन के साथी महाबली तेली ने अपनी धरोहर, थोड़ी-सी पैत्रिक संपत्ति के रूप में बेच दी, जिससे छत्रसाल ने 5 घुड़सवार और 25 पैदलों की छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार के दिन वि.सं.1728 (सन 1671) के शुभ मुहूर्त में क्रूर औरंगजेब के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापना का बीड़ा उठाया।
● संघर्ष का शंखनाद कर बुन्देल राज्य की स्थापना की
छत्रसाल महाराज की प्रारंभिक सेना में राजे-रजवाड़े नहीं थे अपितु तेली बारी, मनिहार आदि जातियों से आनेवाले सेनानी ही शामिल हुए थे। इस सबमें चचेरे भाई बलदीवान उनके साथ आए। उन्होंने पहला आक्रमण किया अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों पर। मुगल मातहत कुंअरसिंह को ही कैद नहीं किया गया बल्कि उसकी मदद को आये हाशिम खां की धुनाई की गयी और सिरोंज एवं तिबरा लूट डाले गये। इसके बाद ग्वालियर-खजाना लूटकर सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया, उसके उपरांत नरवर भी जीता। कहते हैं कि ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड़ रुपये प्राप्त हुए पर इसके बाद औरंगजेब उनपर टूट पड़ा। उसने सेनपति दणदूल्हा के नेतृत्व में आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढ़ाकोटा के पास छत्रसाल पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध हुआ पर दणदूल्हा (रुहल्ला खां) न केवल पराजित हुआ वरन भरपूर युद्ध सामग्री छोड़कर जान बचाकर भाग खड़ा हुआ। इस विजय से छत्रसाल महाराज के हौसले काफी बुलंद हो गये।
सन 1671-80 की अवधि में महाराज छत्रसाल ने अपने साहसी सेना के बलबूते चित्रकूट से लेकर ग्वालियर तक और कालपी से गढ़ाकोटा तक प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। सन 1675 में महाराज छत्रसाल की भेंट प्रणामी पंथ के प्रणेता संत प्राणनाथ से हुई जिन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया-
"छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय"
"जित जित घोड़ा मुख करे तित तित फत्ते होय।"
महाराज छत्रसाल ने पन्ना के गौड़ राजा को हराकर, उसे अपनी राजधानी बनाया।ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत 1744 (सन 1687) की गोधूलि बेला में स्वामी प्राणनाथ ने विधिवत छत्रसाल का पन्ना में राज्यभिषेक किया। विजय यात्रा के दूसरे सोपान में छत्रसाल ने अपनी रणपताका लहराते हुए सागर, दमोह, एरछ, जलापुर, मोदेहा, भुस्करा, महोबा, राठ, पनवाड़ी, अजनेर, कालपी और विदिशा का किला जीत डाला। कहते हैं कि आतंक के मारे अनेक मुगल फौजदार स्वयं ही छत्रसाल महाराज को कर देने लगे। बघेलखंड,मालवा, राजस्थान और पंजाब तक छत्रसाल ने युद्ध जीते। परिणामतः यमुना, चंबल, नर्मदा और टोंस मे क्षेत्र में बुंदेला राज्य स्थापित हो गया। सन 1707 में औरंगजेब का निधन हो गया। उसके पुत्र आजम ने बराबरी से व्यवहार कर महाराज को सूबेदारी देनी चाही पर महाराज ने संप्रभु राज्य के आगे यह अस्वीकार कर दिया। इसके बाद आजम ने सेना भेजी लेकिन महाराज की सेना के आगे मुगल सैनिक टिक नहीं पाए और भाग खड़े हुए।
● मराठों की सहायता से मुग़लों को धूल चटाया
महाराज छत्रसाल ने अपने पिताजी की वचन का मान रखते हुए पंवार वंश की कन्या देवकुंवरी से विवाह कर लिया। जिनसे उनके दो पुत्र हुए। महाराज छत्रसाल ने एक मुस्लिम कन्या से भी विवाह किया था जिनसे उनकी पुत्री हुई जो मस्तानी के नाम से जानी जाती है। 60 वर्ष की आयु तक उन्होंने युद्ध लड़कर अपने राज्य का विस्तार किया, जिसके उपरांत पड़ोसी राज्यों ने उसने सन्धि करने में ही अपनी भलाई समझी। इस दौरान मुगल अपनी सीमा छोड़, महाराज छत्रसाल के सीमा में प्रवेश करने से बचते रहे। लेकिन इतिहासकार कहते हैं कि महाराज छत्रसाल पर इलाहाबाद के नवाब मुहम्मद बंगस का ऐतिहासिक आक्रमण हुआ। किंतु इस समय छत्रसाल लगभग 80 वर्ष के वृद्ध हो चले थे और उनके दोनों पुत्रों में अनबन थी। जैतपुर में छत्रसाल पराजित हो रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में उन्होंने बाजीराव पेशवा को पुराना संदर्भ देते हुए सौ छंदों का एक काव्यात्मक पत्र भेजा जिसकी दो पंक्तियां थीं -
"जो गति गज और ग्राह की सो गति भई है आज,"
"बाजी जात बुंदेल की राखौ बाजी लाज।"
इसके बाद बाजीराव अपनी सेना लेकर जल्द से जल्द महाराज छत्रसाल की मदद के लिए पहुंच गए। फलतः बाजीराव की सेना आने पर बंगश की पराजय ही नहीं हुई वरन उसे प्राण बचाकर अपमानित हो, भागना पड़ा। छत्रसाल युद्ध में टूट चले थे, लेकिन मराठों के सहयोग से उन्होंने कलंक का टीका सम्मान से पोंछ डाला। यहीं कारण था छत्रसाल ने अपने अंतिम समय में जब राज्य का बंटवारा किया तो बाजीराव को तीसरा पुत्र मानते हुए बुंदेलखंड झांसी, सागर, गुरसराय, काल्पी, गरौठा, गुना, सिरोंज और हटा आदि हिस्से के साथ अपनी बेटी मस्तानी को भी सौंप दिया। हालांकि इतिहासकार इसे एक संधि के अनुसार दिया हुआ बताते हैं पर जो भी हो अपनी ही माटी के दो वंशों, मराठों और बुंदेलों ने बाहरी शक्ति को पराजित करने में जो एकता दिखायी वह अनुकरणीय है। महाराज छत्रसाल ने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाह को बराबरी का हिस्सा, जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर 82 की आयु में 25 दिसम्बर 1731 को संसार से विदा ले लिया। राज्य संचालन के बारे में उनका सूत्र उनके ही शब्दों मेंः
"राजी सब रैयत रहे, ताजी रहे सिपाहि"
"छत्रसाल ता राज को, बार न बांको जाहि।"
यही कारण था कि छत्रसाल को अपने अंतिम दिनों में वृहद राज्य के सुप्रशासन से एक करोड़ आठ लाख रुपये की आय होती थी। उनके एक पत्र से स्वष्ट होता है कि उन्होंने अंतिम समय 14 करोड़ रुपये राज्य के खजाने में (तब) शेष छोड़े थे। प्रतापी छत्रसाल ने पौष शुक्ल तृतीया भृगुवार संवत् 1788 (दिसंबर 1731) को छतरपुर (नौ गांव) के निकट मऊ सहानिया के छुवेला ताल पर अपना शरीर त्यागा और विंध्य की अपत्यिका में भारतीय आकाश पर सदा-सदा के लिए जगमगाते सितारे बन गये।
टिप्पणी : महाराज छत्रसाल की जीवनी से पता चलता है कि वो भारत के मध्ययुग के एक महान प्रतापी योद्धा थे जिन्होने मुगल शासक औरंगजेब को युद्ध में पराजित करके बुन्देलखण्ड में अपना राज्य स्थापित किया और महाराजा की पदवी प्राप्त की। छत्रसाल महाराज के नेतृत्व में बुंदेलों ने मुगलों की सत्ता के खिलाफ संघर्ष किया और बुंदेलखंड की स्वतंत्रता स्थापित की। बुंदेलखंड केसरी के नाम से विख्यात महाराजा छत्रसाल बुन्देला के बारे में ये पंक्तियां बहुत प्रभावशाली है जिसे आज भी बुंदेलों द्वारा गाया जाता है -
इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल, उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस॥
जय हिन्द, जय भारत
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