अग्नि पुराण ३७२ के कथनानुसार, प्रणवमें सम्पूर्ण वेदोंकी स्थिति है। वाणीका जितना भी विषय है, सब प्रणव है; इसलिये प्रणवका अभ्यास करना चाहिये।
'प्रणव' अर्थात् 'ओंकार' में अकार, उकार तथा अर्धमात्राविशिष्ट मकार है। तीन मात्राएँ, भूः आदि तीन लोक, तीन गुण, जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति – ये तीन अवस्थाएँ तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव – ये तीनों देवता प्रणवरूप हैं।
ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र, स्कन्द, देवी और महेश्वर, श्री और वासुदेव - ये सब क्रमशः ॐकारके ही स्वरूप हैं। ॐकार मात्रासे रहित अथवा अनन्त मात्राओंसे युक्त है। वह द्वैतकी निवृत्ति ?प्रकाश करता है, वैसे ही मूर्द्धामें स्थित परब्रह्म भी भीतर अपनी ज्ञानमयी ज्योति छिटकाये रहता है।
मनुष्यको चाहिये कि मनसे हृदयकमलमें स्थित आत्मा या ब्रह्मका ध्यान करे और जिह्वासे सदा प्रणवका जप करता रहे। (यही 'ईश्वरप्राणिधान' है।) 'प्रणव' धनुष है, 'जीवात्मा' बाण है तथा 'ब्रह्म' उसका लक्ष्य कहा जाता है।
सावधान होकर उस लक्ष्यका भेदन करना चाहिये और बाणके समान उसमें तन्मय हो जाना चाहिये। यह एकाक्षर (प्रणव) ही ब्रह्म है, यह एकाक्षर ही परम तत्त्व है, इस एकाक्षर ब्रह्मको जानकर जो जिस वस्तुकी इच्छा करता है, उसको उसीकी प्राप्ति हो जाती है।
इस प्रणवका देवी गायत्री छन्द है, अन्तर्यामी ऋषि हैं, परमात्मा देवता हैं तथा भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये इसका विनियोग किया जाता है। करनेवाला तथा शिवस्वरूप है। ऐसे ॐकारको जिसने जान लिया, वही मुनि है, दूसरा नहीं।प्रणवकी चतुर्थीमात्रा (जो अर्धमात्राके नामसे प्रसिद्ध है) 'गान्धारी' कहलाती है। वह प्रयुक्त होनेपर मूर्द्धामें लक्षित होती है। वही 'तुरीय' नामसे प्रसिद्ध परब्रह्म है। वह ज्योतिर्मय है।
जैसे घड़ेके भीतर रखा हुआ दीपक वहाँ प्रकाश करता है, वैसे ही मूर्द्धामें स्थित परब्रह्म भी भीतर अपनी ज्ञानमयी ज्योति छिटकाये रहता है। मनुष्यको चाहिये कि मनसे हृदयकमलमें स्थित आत्मा या ब्रह्मका ध्यान करे और जिह्वासे सदा प्रणवका जप करता रहे। (यही 'ईश्वरप्रणिधान' है।)
'प्रणव' धनुष है, 'जीवात्मा' बाण है तथा 'ब्रह्म' उसका लक्ष्य कहा जाता है। सावधान होकर उस लक्ष्यका भेदन करना चाहिये और बाणके समान उसमें तन्मय हो जाना चाहिये। यह एकाक्षर (प्रणव) ही ब्रह्म है, यह एकाक्षर ही परम तत्त्व है,इस एकाक्षर ब्रह्मको जानकर जो जिस वस्तुकी इच्छा करता है, उसको उसीकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रणवका देवी गायत्री छन्द है, अन्तर्यामी ऋषि हैं, परमात्मा देवता हैं तथा भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये इसका विनियोग किया जाता है।
अग्नि पुराण ३७२