मंदिरों की क्या आवश्यकता व औचित्य है?वे कैसे सार्थक हो सकते हैं?
प्राचीन काल से ही चार पुरुषार्थों व चार वर्णों व चार आश्रमों के आधार पर सनातन धर्म की आध्यात्मिक, परमवैज्ञानिक व सुदृढ़ सामाजिक आधारशिला डाली गयी। पहले लोग नलकूपों के स्थान पर ताल-तलैयों, कुओं, बावड़ियों तथा नदियों आदि का प्रयोग जल हेतु कर लिया करते थे, जिससे वर्षा के मौसम में वर्षाजल द्वारा वर्ष पर्यन्त निकाले गये जल की पूर्ति भूमि में हो जाये। वे चाहते तो नलकूप भी बना सकते थे,परन्तु प्रकृति के कार्यों में बिल्कुल नहीं अथवा न्यूनतम् हस्तक्षेप किये अपने जीवन को सार्थक करना।
इसी क्रम में हमारे पूर्वज मिट्टी व घासफूसों के कम लागत वाले आवासों का निर्माण करते थे, जिससे उन्हें पुरुषार्थ हेतु समय भी पर्याप्त मिल पाता था, इस लिये नहीं कि उन्हें पक्के भवन बनाने नहीं आते थे। इसी क्रम में गुरुकुलों की आवश्यकता हुयी, सो एकान्त आरण्यकों में गुरुजनों ने आश्रम निर्मित करके वेदादि के मंत्रों का दर्शन कर ज्ञान-विज्ञान का मजबूती से प्रचार-प्रसार किया।
आश्रमों के माध्यम से आरण्यकों (वनों) के विविध क्षेत्रों में जैव विविधता का संरक्षण व संवर्धन गुरुकुलों के माध्यम से किया जाता था जिनमें चक्रवर्ती राजा तक हस्तक्षेप नहीं कर पाते थे। गुरुकुलों की व्यवस्था दान के धन, राशन व वनौषधियों फलों से संपादित होती थी।
उसी क्रम में समाज को मार्गदर्शन व विविध प्रकार के अनुसंधानों हेतु गुरुकुलों में मंदिरों तथा राज्यों में मंदिरों का सूत्रपात हुआ, जहां विविध तपों, शोधों, शारीरिक व मानसिक सौष्ठव,विद्या, युद्धविद्या तथा दानादि के माध्यम से जरूरतमंदों व आपात्काल हेतु रसद व धन का एकत्रण व प्रयोग दैव के नाम पर किया जाता था। उसी काल से विविध राजाओं नें आपात एवम् दुर्भिक्ष काल से अपनी प्रजाओं के संरक्षण हेतु विविध गढ़ों दुर्गों (किलों) के निर्माण करवाये, जिनको भरपूर सहयोग मंदिरों से प्राप्त होता था।
इन मंदिरों के माध्यम से जन-सामान्य चारों पुरुषार्थों को अनायास ही पा जाते थे, इन्ही के माध्यम से मेलापकों (मिलाप के केन्द्रों मेलों, जैसे कुम्भ आदि) में दूरस्थ व्यक्तियों व संस्कृतियों का मेल होकर नयी तकनीकियों व भावनाओं का मिलन होता था।
इस प्रकार ये सुनियोजित मंदिर हमारी संस्कृति को गंगा के प्रवाह की भांति सतत प्रवाहित करते चले आ रहे हैं। धीरे धीरे संपन्नता के मद में चूर होकर व्यवस्थापकों नें मूल अवधारणाओं को ही किनारे करते हुये धन को ही केंद्र में कर दिया, कहने का मतलब चारों पुरुषार्थों में धर्म के स्थान पर भ्रम व अधर्म, अर्थ के स्थान पर अनर्थ, काम के स्थान पर वासना तथा मोक्ष का तो धन्धा बनाकर रख दिया कुछ स्वार्थियों नें, जिससे सबसे बड़ा कुठाराघात सनातन धर्म के मूल (मंदिरों व ब्राह्मणों) पर ही हुआ।
परिणाम सबके सामने है तथा विद्वानों द्वारा कल्पित कलियुग अपने परिपक्व रूप में जन जन (पीड़क व पीड़ित दोनों को) को अपने गिरफ्त में लेकर बझा (फंसा) रखा है।
अब हम सभी सनातनियों को अपनी सामर्थ्य को बढ़ाने के प्रयास के साथ-साथ अपनी सामर्थ्यानुसार, वर्ण एवम आश्रमानुसार सनातनी परम्पराओं के मूल्यांकनपरक संवर्धन में पूरी तन्मयता से डटना होगा। सभी से सकारात्मक सहयोग अपेक्षित है, यह मात्र मेरी या आपकी ही नहीं वरन् हम सब की जिम्मेदारी है। मंदिर, जहां देवत्व घनीभूत होकर श्रद्धा के माध्यम से जन जन के चरित्र में उतरकर वातावरण को स्वर्ग सदृश बना देता है।