. #शुभ_रात्रि
परिवार संस्था का आरम्भ नारी के गृह प्रवेश के साथ होता है। एकाकी पुरुष दफ्तर में काम करके और सराय में सोकर भी गुजर कर सकता है, पर घोंसला बनाने और अण्डे - बच्चों को सँभालने की बात नव वधू के साथ ही जुड़ती है। सूक्तिकार की वह उक्ति अक्षरशः सही है जिसमें कहा गया है कि 'न गृहं गृह मित्याहु गृहिणी गृह मुच्यते' अर्थात् इमारत घर नहीं कहलाती वस्तुतःगृहणी, घरवाली ही घर है। गृहलक्ष्मी के प्रवेश से ही टूटे पुराने घर झोंपड़े हास- उल्लास से भर जाते हैं और सृजन के बहुमुखी प्रयत्न एक निश्चित दिशा में चल पड़ते हैं। नारी घर का आरम्भ ही नहीं करती वरन् उसका विस्तार, पोषण, विकास भी वही करती है, अब उसमें इतना और जोड़ना है कि परिवार को सुसंस्कृत, परिष्कृत और समुन्नत बनाने का ईश्वर प्रदत्त उत्तरदायित्व भी वही सँभाले। उसका भावनात्मक ढाँचा इस प्रयोजन को भली प्रकार पूरा कर सकने के लिये सर्वथा उपयुक्त बनाया गया है।
इस दिशा में पहला कदम यह होना चाहिये कि गृहलक्ष्मी, " गृहसंचालिका इस योग्य बने कि वह अपनी प्रतिभा को उपयुक्त उत्तरदायित्व निबाहने में सक्षम सिद्ध कर सके। महिला जागरण का उद्देश्य ऐसे इंजीनियर तैयार करना है जो नये समाज का नया भवन बनाने में अपनी कुशलता सिद्ध कर सकें। नारी जागरण के अन्य प्रयोजन भी हैं, प्रतिफल भी, पर सबसे बड़ी उपलब्धि यही मिलनी है कि परिवार संस्था में नवजीवन भरा जा सकेगा और उस क्षेत्र में उगे हुए नर- रत्न व्यक्ति और समाज- निर्माण की समस्त समस्याओं का सहज समाधान कर सकेंगे।
स्त्री को परिवार का हृदय और प्राण कहा जा सकता है। परिवार का सम्पूर्ण अस्तित्व तथा वातावरण गृहिणी पर निर्भर करता है। यदि स्त्री न होती तो पुरुष को परिवार बनाने की आवश्यकता न रहती और न इतना क्रियाशील तथा उत्तरदायी बनने की। स्त्री का पुरुष से युग्म बनते ही परिवार की आधारशिला रख दी जाती है और उसे अच्छा या बुरा बनाने की प्रक्रिया भी आरम्भ हो जाती है। परिवार बसाने के लिए अकेला पुरुष भी असमर्थ है और अकेली स्त्री भी, पर मुख्य भूमिका किसकी है, यह तय करना हो तो स्त्री पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है। क्योंकि अन्दरूनी व्यवस्था से लेकर परिवार में सुख- शान्ति और सौमनस्य के वातावरण का दायित्व प्रायः स्त्री को ही निभाना पड़ता है। इसलिए स्त्री के साथ गृहणी, सुगृहणी गृह- लक्ष्मी जैसे सम्बोधन जोड़े गये हैं। पुरुष के लिए ऐसा कोई विशेषण नहीं मिलता। यहाँ गृहिणी से तात्पर्य केवल पत्नी से ही नहीं है। स्त्री चाहे जिस रूप में हो, वह जिस परिवार में रहती है वहाँ के वातावरण को अवश्य प्रभावित करती है। माता, पत्नी, बहिन, बुआ, चाची, ताई, दादी, ननद, देवरानी जेठानी, भाभी आदि सभी परिवार के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और वहाँ के वातावरण को, उस घर के सदस्यों को प्रभावित करती हैं। कारण कि पुरुष तो अधिकांशतः बाहर रहते हैं, वृद्ध या असमर्थ घर में रहते भी हों तो वे स्त्री की तरह वहाँ के वातावरण को प्रभावित नहीं करते। क्योंकि स्त्री की कोमलता, संवेदना, करुणा, स्नेह और ममता की जो हार्दिक विशेषताएँ होती हैं, वे पुरुषों में नहीं होतीं। इन विशेषताओं के कारण ही महिलाएँ घर के सदस्यों के अधिक निकट रहती और उन्हें प्रभावित करती हैं।
. 🚩जय जगदम्बे 🚩