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🔏 लेखक : पंकज सनातनी
हिंदू समाज में विवाह से जुड़ी कई प्रथाएं हैं जिनका सदियों से हमारे द्वारा अनुसरण किया जा रहा है। इनमें से न जाने कितनी प्रथाओं के बारे में विस्तार से जाने बिना ही हम उनका अनुसरण करते हैं और अपने जीवन में ढालते चले आ रहे हैं।
हिंदू धर्म में विवाह के दौरान कई तरह की रस्में निभाई जाती हैं। कन्यादान भी इन्हीं रस्मों में से एक है तथा धर्मशास्त्रों में कन्यादान को महादान बताया जाता है। हिंदू धर्म में होने वाली शादियों में जयमाला से लेकर कन्यादान तक हर रस्म के अलग-अलग मायने हैं। लेकिन यह बहुत कम लोग जानते हैं कि कन्यादान का मतलब कन्या का दान नहीं होता है।
कहा जाता है कि कन्यादान हर किसी के भाग्य में नहीं होता। कन्यादान यानी कि महादान, ये विवाह के सभी संस्कारों में से सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। कन्यादान का अर्थ और महत्व कई लोग इस तरह से जानते हैं कि कन्या+दान यानी कि कन्या का दान। लेकिन ये कन्यादान का अर्थ और महत्व नहीं है।
दरअसल हिंदू विवाह में कुल 22 चरण होते हैं। कन्यादान को इसमें सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। इस संस्कार में अग्नि को साक्षी मानकर लड़की का पिता अपनी बेटी के गोत्र का दान करता है। इसके बाद बेटी अपने पिता का गोत्र छोड़कर पति के गोत्र में प्रवेश करती है। कन्यादान हर पिता का धार्मिक कर्तव्य है।
दान करना हिंदू धर्म के साथ-साथ अन्य धर्मों में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। दान करने की भावना परोपकार, उदारता और त्याग से जुड़ी हुई है। वहीं कन्यादान को भी कई लोग "कन्या का दान" समझ लेते हैं। लेकिन इसका अर्थ बिल्कुल अलग है। जहां तक इस प्रथा की उत्पत्ति का सवाल है तो वेदों में इसका कहीं जिक्र नहीं मिलता है, क्योंकि वेदों में कभी भी पुरुषों और महिलाओं में कोई अंतर नहीं किया जाता था।
वेदों के समय में स्त्री और पुरुष दोनों को एक सामान ही समझा जाता था, वेदों के समय में स्त्रियां स्वयंवर करती थीं और अपने जीवनसाथी का चुनाव खुद ही करती थीं, जो शादियां समानता के आधार पर ही होती थीं। फिर मनुस्मृति के समय से कन्यादान की प्रथा का आरंभ हुआ और धीरे-धीरे यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रथा बन गई।
ऐसा माना जाता है कि जब मनुस्मृतियों का आरंभ हुआ तब उसमें 8 तरह के विवाह का वर्णन किया गया। जिसमें से एक सर्वप्रमुख ब्रह्म विवाह होता था। इस विवाह में लड़की का पिता अपनी कन्या के लिए एक सुयोग्य वर का चयन करता था और उसे कुछ स्वर्ण या पैसा देकर अपनी कन्या का दान उस पुरुष को करता था।
मनुस्मृति के समय समाज पुरुष प्रधान था और स्त्रियां पुरुषों पर निर्भर होती थीं। इसी वजह से यह नियम बना कि पिता किसी सुयोग्य वर का चयन करके अपनी कन्या का दान करेगा। उसी समय से शुरू हुई थी "कन्यादान" की प्रथा।
💠 भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं समझाया क्या होता है कन्यादान, चलिए जानते हैं कि क्या कन्यादान का अर्थ वहीं है, जो हम वर्षों से समझते आ रहे हैं —
भगवान श्रीकृष्ण जी ने जब अर्जुन और सुभद्रा का गंधर्भ विवाह करवाया था, तो श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम ने इसका विरोध किया। भगवान बलराम ने कहा था कि सुभद्रा का कन्यादान नहीं हुआ है और जब तक विवाह में कन्यादान नहीं होता तब तक यह विवाह पूर्ण नहीं माना जाएगा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि पशु की भांति कन्या के दान का समर्थन भला कौन कर सकता है…? कन्यादान का सही अर्थ है कन्या का आदान ना की कन्या का दान। शादी-विवाह के दौरान कन्या का आदान करते हुए पिता कहता है मैंने अभी तक अपनी बेटी का पालन पोषण किया और उसकी जिम्मेदारी निभाई, मैं आज से आपको अपनी पुत्री सौंपता हूँ। इसके बाद वर कन्या की जिम्मेदारी अच्छे से निभाने का वचन देता है और इसी रस्म को कन्या का आदान कहा जाता है।
ऐसे में कन्यादान का अर्थ "कन्या का दान" नहीं समझना चाहिए, क्योंकि पुत्री का किसी वस्तु की तरह दान नहीं किया जा सकता। कई लोग कन्यादान को पुत्री का महादान भी कहते हैं और इसे बहुत ही पुण्य का काम मानते हैं। लेकिन कन्यादान का यह अर्थ लगाना भी सही नहीं है।
दान का अर्थ होता है कि आपका उस वस्तु पर से अधिकार समाप्त हो गया है। दान उस वस्तु का किया जाता है, जिसे आप ने कमाया है या जिस पर आपका अधिकार है। गरीबों, जरूरतमंदों की सहायता के लिए दान आदि किया जाता है, इसलिए हिंदू धर्म में दान को इतना महत्व दिया गया है।
💠 कैसे शुरू हुई कन्यादान की प्रथा…?
हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार कन्या का आदान सबसे पहले दक्ष प्रजापति द्वारा किया बताया जाता है। दक्ष प्रजापति की 27 कन्याएं थी। जिनका विवाह दक्ष प्रजापति ने चंद्रदेव से करवाया था, ताकि सृष्टि का संचालन सही तरीके से हो सके। उन्होंने अपनी 27 कन्याओं को चंद्र देव को सौंपते हुए कन्या आदान किया था। दक्ष की इन 27 बेटियों को ही 27 नक्षत्र माना जाता है। मान्यताओं के अनुसार उसी समय से विवाह के दौरान कन्या आदान की प्रथा प्रारंभ हुई।
💠 निष्कर्ष :—
आज के समाज में कन्यादान भले ही कितना महत्वपूर्ण क्यों न हो, लेकिन एक पिता के लिए यह एक भावुक क्षण ही होता है क्योंकि वो अपने कलेजे के टुकड़े को दूसरे हाथों में सौंप देता है। इसलिए जब कभी आपको भी किसी कन्या के विवाह की सूचना मिले तो अपनी स्वेच्छानुसार कन्यादान के रूप में कुछ ना कुछ सहयोग दान अवश्य करें। क्योंकि ऐसे समय में कन्या के पिता को धन की काफी आवश्यकता होती है। और दान को सनातन धर्म में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
✍️ साभार
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