सत्य सनातन वैदिक हिंदू धर्म की कुछ परंपराएं वैदिक एवं सनातनी है इसमें किसी सनातनी को शंका नहीं होनी चाहिए। कुछ अनार्य धूर्तों एवं धूर्त मत संप्रदायों के भ्रामक प्रचार से वशीभूत होकर अपनी वैदिक परंपराओं का त्याग करना महापाप है।
वेदानुसार यज्ञ पांच प्रकार के होते हैं- 1. ब्रह्मयज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ, 5. अतिथि यज्ञ। उक्त 5 यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। उक्त 5 यज्ञों में से ही एक यज्ञ है 'पितृयज्ञ'। इसे पुराणों में श्राद्ध कर्म की संज्ञा दी गई है।
श्राद्ध या ब्रह्मभोज शब्द शास्त्रीय हैं। ये श्राद्ध शब्द श्रद्धा से उत्पन्न हुआ है अर्थात जिनको अपने पूर्वजों एवं पितरों के प्रति श्रद्धा होगी वही श्राद्ध करेगा। अपने पितरों के लिए श्रद्धा से किया गया पूजन, यज्ञ एवं तर्पण श्राद्ध कहलाता है।
‘श्राद्ध’ क्या हैं- वेदों में ‘उपास्य’ (जिसकी उपासना या पूजा की जाती है) देवता बताए गए हैं और यज्ञ में भी ‘उपास्य’ देवता ही होते हैं। यज्ञ का मुख्य उद्देश्य देवताओं का तृप्त करना होता हैं इसी प्रकार पुराणकाल में पितरों की तृप्ति व संतुष्टि के लिए श्राद्ध व तर्पण का विधान बताया गया है। जिस प्रकार यज्ञ से देवतृप्त होते हैं, उसी प्रकार श्राद्ध व तर्पण से पितरों की संतुष्टि होती है।
वेद और उपनिषद में यज्ञ से देवों की तृप्ति के रहस्य का वर्णन है, वहाँ दूसरी और पुराण व स्मृतियों में श्राद्ध व तर्पण से पितरों की तृप्ति के रहस्य का वर्णन है।
श्राद्ध कर्म में ब्रह्मभोज भी होता है। ब्रह्मभोज शास्त्रीय परंपरा है। कुछ दुष्टों ने सनातन समाज में कुछ भ्रम फैला कर रखा है जिससे श्राद्धकर्म और ब्रह्मभोज की परंपरा पर सनातनीयों की आस्था डगमगा रही है। कुछ धूर्त श्राद्धभोज या ब्रह्मभोज को पाखंड एवं अवैदिक बताकर सनातनीयों को दिन रात भ्रमित करते रहते हैं। श्राद्ध भोज को झूठलाने के लिए एक नया शब्द गण लिया ' मृत्युभोज '। यह शास्त्रीय शब्द कदापि नहीं हैं। यह कुछ अनार्य धूर्तों एवं दुष्टों की मन की उपज है। ये शब्द उन धूर्तों ने ढूँढा हैं जिन्हें अपने कुल के किसी की मृत्यु पर ब्रह्मभोज और श्राद्धभोज या गाँव भोज कराने पर पैसे की बर्बादी लगती हैं। हम श्राद्ध कर्म की वैदिकता सिद्ध करने के लिए वेद एवं अन्य शास्त्रों से आपके समक्ष प्रमाण प्रस्तुत करेंगे जो निम्न हैं ;
कुछ धूर्त ये कहते हैं कि अपने जिंदा पितरों का श्राद्ध करना चाहिए! अपितु, मरे हुए का नहीं करना चाहिए! ऐसा कहने वाले सिर्फ धूर्त हैं जिन्हें वैदिक परंपराओ की थोड़ी भी समझ नहीं। यजुर्वेद में इसका उल्लेख आया है कि जो पूर्व पितर अर्थात पूर्वज है उनका ही श्राद्ध होना चाहिए ;
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः ।
तेभिर् यमः सꣳरराणो हवीꣳष्य् उशन्न् उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु ॥ - (यजुर्वेद अध्याय - 19, श्लोक - 51)
अर्थात - जो हमारे पूर्व पितर हैं अर्थात पूर्वज हैं वे सौम्य,सुखी सोमरस पीने योग्य वसिष्ठ हैं ,उनके लिए हमारे पितर यम देवता के साथ पधारने की कृपा करें। हवि को ग्रहण करने एवं शत्रु को नाश करने की कृपा करें और हमारी कामनाओं की पूर्ति करने वाले हों।
अधा यथा नः पितरः परासः प्रत्नासो अग्न ऽ ऋतमाशुषाणाः ।
शुचीदयन् दीधितिमुक्थशासः क्षामा भिन्दन्तो अरुणीरपव्रन् ॥ - (यजुर्वेद अध्याय - 19, श्लोक - 69)
अर्थात - हे अग्नि! जैसे हमारे पितरों ने देह से मुक्त होकर ऋतलोक को पाया ,पवित्र किया, ज्ञान का विस्तार किया ,अज्ञान का भेदन किया , हम भी हमारे पितरों की तरह दिव्यलोक को पाएं।
अथर्ववेद जिसे ब्रह्मवेद कहा जाता है जिसके अंदर निहित ज्ञान ब्रह्मज्ञान है , उसमें भी पितृयज्ञ अर्थात श्राद्ध कर्म का उल्लेख आया है ;
परा यात पितरः सोम्यासो गम्भीरैः पथिभिः पूर्याणैः ।
अधा मासि पुनरा यात नो गृहान् हविरत्तुं सुप्रजसः सुवीराः ॥ - (अथर्ववेद कांड-18, सूक्त-4, मंत्र- 63)
अर्थात - हे सोमपानकर्ता पितृगण! आप अपने पितृलोक के गंभीर असाध्य पितृयाण मार्गों से अपने लोक को जाएं। मास की पूर्णता पर अमावस्या के दिन हविष्य का सेवन करने के लिए हमारे घरों में आप पुन: आएं। हे पितृगण! आप ही हमें उत्तम प्रजा और श्रेष्ठ संतति प्रदान करने में सक्षम हैं।
ऋग्वेद में भी पितृयज्ञ या श्राद्ध कर्म का उल्लेख आया है ;
बर्हिषदः पितर ऊत्यर्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम् ।
त आ गतावसा शंतमेनाथा नः शं योररपो दधात ॥
- (ऋग्वेद कांड-10, सूक्त-15 मंत्र- 4)
अर्थात - है कुशो के आसन पर ऊपर बैठने वाले पितरों! इस समय आप लोग हमारी रक्षा करें! हमने आप लोगों के लिए हव्य तैयार किए हैं इसका उपभोग करो। आप लोग इस यज्ञ में पधारें एवं रक्षा करते हुए हमारा कल्याण करें। आप लोग हमें सुखी करो, हमारा दुख मिटाओ एवं हमें पाप रहित बनाओ।
याज्ञवल्क्य स्मृति में ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा है ;
‘श्राद्धं नामादनीयस्य तत्स्थानीयस्य वा।
द्रव्यस्य प्रेतोद्देशेन श्रद्धया त्यागः।।
अर्थात्- पितरों को उद्देश्य करके उनके निमित्त अथवा उनके प्रतिनिधियों(ब्राह्मणों) को श्रद्धापूर्वक किया गया द्रव्य का त्याग ही, ‘श्राद्ध’ है।
‘मार्कण्डेयपुराण’ में ‘श्राद्ध’ का सम्बन्ध श्रद्धा से द्योतित किया गया है और कहा गया है कि श्राद्ध में जो कुछ भी दिया जाता है। वह पितरों द्वारा प्रयुक्त होने वाले उस भोजन में परिवर्तित हो जाताहै जिसे वे कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार नए शरीर के रूप में पाते हैं।
श्राद्ध पर भोजन की परंपरा केवल द्वादशी (बारहवें दिन) तक मान्य हैं। तेरही या तेरहवी पर ब्रह्मभोज या अन्य भोज गलत परंपरा समाज में पनपी जो ताम्सिक लोगों द्वारा शुरू की गई। परंतु, द्वादशी पर ब्रह्मभोज या अन्य भोज कराना शास्त्र के अनुरूप हैं। इससे आत्मा को प्रेत योनि में भटकने से मुक्ति मिलती हैं और कोई भी फल आत्मा को नहीं प्राप्त होता। आत्मा को अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता हैं। जो लोग अपने पितरों के श्राद्ध में भोजन या अन्य अनुष्ठान करते हैं उनके गोत्र की संतति अर्थात उनके कुल में संतति (संतान) की वृद्धि होती हैं। यही फल कर्ता को प्राप्त होता हैं। अन्यथा, उसका कुल भविष्य में नष्ट हो जाता हैं।
जो लोग अपने पितरों का श्राद्ध नहीं करते उनका पुनर्जन्म ही नहीं होता है उनको प्रेत योनि में अनंतकाल तक भटकना पड़ता है। जो लोग वैदिक वैदिक का ढोल पिटते हुए ये कहते हैं कि मृत्यु के उपरांत आत्मा या पितरो का श्राद्ध वेद सम्मत नहीं हैं या ब्रह्मभोज या श्राद्धभोज नहीं होता उन लोगों ने कभी वेद या अन्य शास्त्र पढ़ें ही नहीं या पढ़ें भी होंगे तो मनमाना अर्थ लगाया हैं। क्योंकि पितृयज्ञ ,श्राद्धकर्म तर्पण ब्रह्मभोज आदि संस्कार का वेदों और अन्य शास्त्रो में भी कई स्थानों पर विस्तृत वर्णन आया है। उपर्युक्त वेदों एवं शास्त्रों के प्रमाणों से हमने ये सिद्ध कर दिया है कि श्राद्धकर्म या पितृयज्ञ वैदिक है इस परंपरा को झूठलाने वाले केवल धूर्त ,दिग्भ्रमित एवं नास्तिक कहलाएंगे। अपने पितरों के प्रति श्रद्धा का भाव रखकर श्राद्ध कर्म करने वाले दिव्य लोकों को प्राप्त होते हैं।
शास्त्रों का स्पष्ट मत है कि जो व्यक्ति श्राद्ध करता है, वह पितरों के आशीर्वाद प्राप्त करता है और आयु, बल, पुत्र, यश, सुख, वैभव और धन-धान्य को प्राप्त होता है। इसी निमित्त आश्विन मास के कृष्ण पक्ष भर प्रतिदिन नियम पूर्वक स्नान करके पितरों का तर्पण किया जाता है और जो दिन पितरों की मृत्यु का होता है, उस दिन यथा शक्ति श्रेष्ठ कार्यों के लिए व सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए दान दिया जाता है।
- पं.संतोष आचार्य