आरफा खानम पढ़ी लिखी भी हैं और पत्रकार है लेकिन दिमाग में तो वही है जो इनके हो सकता है... इन्हें हिंदुओं की खुशियां चुभती हैं, इन्हें भगवा से भयानक पीड़ा उठती है। और ये बात खुद आरफा अपने ही मूंह से बोल रही है। इन्हें हिंदुओं के घरों में जबरन घुसती नमाज की आवाज से दिक्कत नहीं, सड़कों, सार्वजनिक स्थलों पर नमाज के लिए बैठ जाने वाले मुसलमानों से दिक्कत नहीं लेकिन सड़कों के किनारे पर, सोसाइटी के दरवाजों पर भगवा लगा दिए जाएं तो स्थान विशेष सुलग उठते हैं
आरफा का कहने का मतलब साफ है , मुस्लिम एरिया में हिन्दू धार्मिक कार्य बन्द कर दे.झंडा भी न लगाये.
“मेरी सोसाइटी में भगवा झंडे लगे,ऐसा लगा जैसे ये झंडा मेरे सीने में लगा है”~आरफ़ा
ये @khanumarfa सड़क पर नमाज,स्कूल में हिजाब और लाउडस्पीकर पर अजान के पक्ष में है
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में खुद को बाबर की औलाद से जोड़ते हुए उन्होंने कहा, “मैं जिस सोसायटी में रहती हैं वहाँ हिंदू-मुस्लिम-सिख सभी समुदाय के लोग हैं लेकिन फिर भी वहाँ भगवा झंडा लगा दिया गया है जिसे देख ऐसा लगता है जैसे वो मेरे सीने पर लगा हो।” उन्होंने कहा कि वह, उनके पिता, उनके पिता, उनके पिता के पिता और बाबर की औलादों तक सब इसी देश में पैदा हुए हैं…।
लाउडस्पीकर पर अजान, सड़क पर नमाज से क्यों नहीं दिक्कत थी आरफा को
भगवा देख घबराने वाली आरफा को देश के सेकुलरिज्म की बहुत चिंता है। लेकिन आरफा खानम शेरवानी का ये डर आजतक तब नहीं जागा जब रोड किनारे नमाज पढ़ने का चलन सामान्य था। क्या तब हिंदुओं को ये नहीं लगता होगा कि नमाज उसी स्थान को ब्लॉक करके पढ़ी जा रही है जहाँ आने-जाने का अधिकार उनका भी है? आज भी यदि को मजहब के नाम पर सड़क ब्लॉक करके बैठ जाए तो वह उसे उनका अधिकार कहेंगी और अगर कोई भगवा पहनकर घर से निकल जाए तो वह लोकतंत्र पर खतरा बताएँगी। आरफा बताएँ कि ये कैसी हिपोक्रेसी है जहाँ दंगा करने वाली इस्लामी कट्टरपंथी भीड़ के उन्माद को प्रदर्शन कहा जाता है और शोभा यात्रा निकालने वाले हिंदुओं पर पथराव की घटनाओं पर चुप्पी साधी जाती है?
मंदिर में मस्जिद क्यों नहीं बनाया: आरफा का सवाल
बुत पूजा को खुलेआम कुफ्र कहने वाले लोगों की आवाज बन आरफा खानम ये रो रही हैं कि कोर्ट ने ऑर्डर में कहा था मंदिर के साथ रहम के तौर पर वहाँ एक छोटी मस्जिद भी बन जाए लेकिन ऐसा नहीं किया गया… अजीब बात ये है कि 5 साल पहले जब राम मंदिर पर फैसला आया था तो एक जमीन मस्जिद के लिए भी मिली थी। मुस्लिम पक्ष द्वारा उसका निर्माण तो दूर उसकी एक ईंट तक नहीं रखवाई गई। लेकिन आरफा खानम के सवाल किससे हैं? हिंदुओं से। उनके लिए देश में सौहार्द तभी आएगा जब हिंदू उन्हें उनके धर्मस्थल पर मस्जिद बनाने देंगे और सेकुलरिज्म तब जीवित रहेगा जब वो भूल जाएँगे कि किसी समय में जहाँ मजहबी स्थल हैं वहाँ भव्य मंदिर हुआ करते थे।
वरना आप ही सोचिए, अगर सोसायटी में किसी के भगवा झंडा लगा ही है तो इससे आरफा को इतनी पीड़ा क्यों हुई कि उन्हें लगे कि वो उनकी छाती पर लगा दिया गया है। हिंदुओं ने तो इतने सालों से कभी आवाज नहीं उठाई थी कि लाउडस्पीकर पर अजान सुबह-सुबह उन इलाकों में क्यों बजाई जा रही है जहाँ की जनसंख्या में हिंदू भी उतने हैं जितने की मुस्लिम…आज अगर रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद लोग अपने प्रभु की जय-जयकार कर रहे हैं तो इससे सोचने वाली बात है कि आरफा चिंता में है या ‘बाबर की औलादों (आरफा के शब्द)’ के आने के बाद भारत में घुसा कट्टरपंथ, जिसने लाखों मंदिरों को तोड़ा और हिंदुओं पर धर्मांतरण का दबाव बनाया।
आरफा को आज चाहिए कि भारत में हिंदू धर्म को महत्व न दिया जाए लेकिन आरफा को ये नहीं बताना है कि भारत में बैठकर वो गाजा का रोना क्यों रोती हैं, क्या उसकी वजब उम्माह नहीं है। अगर कारण ‘इंसानियत’ होती तो क्या उन्हें सिर्फ इजरायल की कार्रवाई दिखी, हमास द्वारा की गई बर्बरता पर उन्होंने क्यों आँख मूँदी।
स्कूलों में भक्ति गीत गाने से लोकतंत्र खतरे में, हिजाब पहनने की जिद्द सही?
स्कूली छात्राओं द्वारा हिजाब पहनने की जिद्द को समर्थन देने वाली आरफा को चिंता है कि स्कूल-कॉलेजों में लोकतंत्र-संविधान नहीं पढ़ाया जा रहा, बल्कि भक्ति वाले गानों पर टीचर अपने साथ बच्चों को नचा रहे हैं। वो बताती हैं कि संसद धर्म की धुरी पर घूम रहा है और मंदिर में राजनीति हो रही है। उनसे यदि कोई पूछे कि संसद में नमाज का समय देना और इफ्तार पार्टी में राजनेताओं का पहुँचना आखिर क्या था? तो इसका जवाब होगा। क्या तब मजहब संसद में नहीं घुस रहा था क्या तब मजहब के नाम पर राजनीति नहीं चल रही थी। आरफा टीवी पर राम मंदिर की दिखाई जाने वाली खबरों को रामलीला बताती हैं। वहीं अपने भाषण को और राहुल गाँधी पर लिखी किताब के विमोचन कार्यक्रम को वो क्रांति बताती हैं।
कारसेवकों बलिदानी कहने से भी दिक्कत
आरफा की छटपटाहट ये है कि आखिर आज कारसेवकों के बलिदान लोग क्यों याद कर रहे हैं जबकि उन्होंने तो उनके मस्जिद को तोड़ा है। क्या आरफा को इस बात का जवाब नहीं देना चाहिए कि जब उन्हें कारसेवकों से इतनी समस्या है तो फिर उन हिंदुओं पर क्या बीती होगी जिनके धर्मस्थलों पर बाबर की औलादों ने अपने राज में हथौड़े मारे। उनके भगवान की मूर्तियाँ खंडित की। क्यों आखिर टीपू सुल्तान को नायक मानें, क्यों औरंगजेब को राजा समझें।
आरफा खानम अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी पर सवाल उठाती हैं। कहती हैं कि नरेंद्र मोदी एक धर्म के प्रधानमंत्री बन गए हैं और बाकी विकास नहीं कर रहे। आरफा की विकास की परिभाषा शायद केवल एक मजहब के ईर्द-गिर्द होकर गुजरती है क्योंकि उन्हें न देश में बना अटल सेतु दिखाई देता है न ही अयोध्या का वो अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा जो राम मंदिर बनने के साथ हुआ। उनके लिए विकास ये भी नहीं है कि सदियों से चली आ रही तीन तलाक की कुरीति को पीएम मोदी ने खत्म किया, जिसकी हिम्मत पुरानी सरकारों ने कभी नहीं दिखाई। उन्हें वो रौशन घर भी नहीं दिखते जो पीएम मोदी की योजनाओं से जगमगाए, न वो गरीब परिवार दिखते हैं जिनके आवास का इंतजाम पीएम मोदी ने किया।
आरफा खानम के लिए विकास का क्या अर्थ
आरफा के लिए शायद विकास यही है कि सड़कों पर नमाज हो, हिंदुओं के इलाकों में अजान हो मुस्लिम बच्चियाँ हिजाब पहनी दिखें और उनके जैसे इस्लामी कट्टरपंथियों का नैरेटिव फिर से चलना शुरू हो जाए। मीडिया में राम मंदिर की कवरेज को कोसने वाली आरफा को चाहिए वो वामपंथी पत्रकार वापस लौट आएँ जो लच्छेदार शब्दों से हिंदुओं को हिंदू होने पर शर्म महसूस कराएँ और भाजपा की हार पर स्टूडियो में डांस दिखाएँ। उन्हें शायद पर्दों पर उन फिल्मों की वापसी भी चाहिए जहाँ महिमामंडन मुगलों का होता हो, उनसे ये दौर नहीं बर्दाश्त नहीं हो रहा जहाँ मराठाओं की गौरवगाथा, सनातन का स्वर्णिम इतिहास उभर का आता है; प्रधानमंत्री अपने हिंदू होने को छिपाते नहीं, बल्कि त्रिपुंड और तिलक गर्व से लगाते हैं।
सरकार पर प्रोपेगेंडा का इल्जाम लगाने वाली आरफा खुद को एक तरफ निष्पक्ष पत्रकार भी कहती हैं और दूसरी तरफ राहुल गाँधी की पीआर बनकर उनकी किताब का प्रचार भी करती हैं। उनके हिजाब से लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने का शायद यही माध्यम है राहुल को प्रधानमंत्री बनाया जाए, कॉन्ग्रेस की वापसी हो, भगवा झंडे हिंदुओं के घर से उतर जाएँ।
एक तरह से दे दिक्कत उनकी है भी नहीं… उनकी सोच और बौद्धिकता और इस्लामी कट्टरपंथियों की है जो उन्हें मजबूर कर रही है खुद को सिर्फ बाबर की औलाद से जोड़ने के लिए। जब तक वो खुद को बाबर से जोड़कर देखेंगी तब तक तो जाहिर है कि उनके सीने में भगवा चुभेगा ही चुभेगा। भारत को समझने के लिए, भगवा और राम मंदिर के महत्व को जानने के लिए तो उन्हें राम से जुड़ना होगा, जो उनसे हो नहीं पा रहा।