जय श्री राम।।
जब भगवान श्री राम जी ने, स्नान करके वस्त्र और आभूषण धारण किए ।
तो इतने सुंदर लग रहे हैं कि सैकड़ों कामदेव लजा गए।
*अंग अनंग देखि सत लाजे।*
श्री राम जी द्वारा वस्त्र और आभूषण धारण करने पर सौ कामदेव लज्जित हो रहे हैं।
श्री गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं ।
बात यह नहीं है कि,
श्री राम जी वस्त्र और आभूषण धारण करने पर सुंदर लग रहे हैं।
सौ कामदेव उनके वस्त्र और आभूषणों को देखकर लज्जित हो रहे हैं।
दरअसल बात यह है कि,
भगवान श्री राम जी तो सहज ही सुंदर है।
जब श्री राम जी वनवास गए थे ।
तब वस्त्र और आभूषण उतार कर गए थे ।
केवल बल्कल वस्त्र धारण किए हुए थे।
तब भगवान की उस स्यामल छवि को देखकर वनवासी नर नारियों ने कहा था।
*तरुन तमाल बरन तनु सोहा।*
*देखत कोटि मदन मनु मोहा।।*
इन्हें देखकर करोड़ो कामदेव लजा रहे हैं।
वस्त्र और आभूषण देखकर तो केवल सौ कामदेव लज्जित हो रहे हैं।
और भगवान ने जब वल्कल वस्त्र धारण किए थे।
तो भगवान की छवि को देखकर करोड़ों कामदेव लज्जित हुए थे।
भाव यह है कि वस्त्र और आभूषण श्री राम जी को सुंदर नहीं बनाते हैं।
बल्कि श्री राम जी ही वस्त्र और आभूषणों की सुंदरता बढाते हैं। भगवान श्री राम जी तो सहज ही सुंदर है ।
इसीलिए तो गौरी माता ने
गौरी पूजन के समय श्री जानकी जी से कहा था।
*मनु जाहि राचेउ मिलिहि।*
*सो बरु ,सहज सुंदर सांवरो।।*
भगवान तो सहज ही सुंदर है। उन्हें सुंदर बनाने में वस्त्र और आभूषणों की क्या आवश्यकता है।
श्री जानकी जी की सासुओं ने जानकी जी को स्नान कराया।
वस्त्र और आभूषण धारण कराया ।
*सासुन्ह सादर जानकिहि,मज्जन तुरत कराइ दिब्य बसन बर भूषन,अंग अंग सजे बनाइ।।*
श्री सीताराम जी के सुंदर रूप को देखकर सभी बहुत आनंदित हुए
कागभुशुण्डि जी कहते हैं।
है गरुड़ जी , राम जी के दर्शन करने के लिए अपने-अपने विमान से ब्रह्मा जी शिव जी और मुनियों का समुदाय भगवान के दर्शन के लिए आया।
*सुनु खगेस तेहि अवसर,ब्रह्मा सिव मुनि बृंद,चढि बिमान आए सब,सुर देखन सुखकंद।।*
गुरुदेव ने श्री राम जी को सिंहासन आसीन कराने के लिए सिंघासन मंगाया ।
*प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा।*
*तुरत दिब्य सिंघासन मागा।।*
किसी ने गुरुदेव वशिष्ठ जी से कहा ।
गुरुदेव सिंहासन यहां मंगाने की क्या आवश्यकता है ?
अब तो श्री राम जी स्वयं ही जाकर सिंहासन पर विराजमान हो जाएंगे ।
गुरु वशिष्ट जी ने कहा नहीं ।
श्री राम जी को सिंहासन की आवश्यकता नहीं है ।
जो राम जी सिंहासन के पास चलकर जाएं।
सिंहासन को राम जी की आवश्यकता है तो सिंहासन को यहां आना पड़ेगा।
श्री राम जी के सम्मुख सिंहासन
लाया गया ।
श्री सीताराम जी सिंहासन पर विराजमान हुए ।
यहां एक अद्भुत बात यह रही की जब राम जी का राज्याभिषेक हुआ।
तब श्री राम जी सिंहासन पर श्रीं सीता जी सहित विराजमान हुए।
संत कहते हैं इसके पहले भी कई राजा महाराजा हुए।
और इसके पश्चात भी कई राजा महाराजा हुए ।
किंतु कोई भी राजा अपनी भार्या सहित सिंहासन पर विराजमान नहीं हुआ ।
राम जी वह पहले और आखिरी राजा थे।
जो श्री सीता जी को साथ में लेकर सिंहासन पर विराजमान हुए।
संत कहते हैं।
उस समय कुछ परंपरावादी राजाओं ने हो सकता है।
अपने मन में इस बात का विरोध भी माना होगा ।
किंतु गुरु वशिष्ट जी ने सर्वप्रथम इस निर्णय पर सहमति दी।
और सर्वप्रथम राम जी का राज्याभिषेक किया।
इसके पश्चात गुरु वशिष्ट जी ने ब्राह्मणों को आदेश किया।
सृष्टि वाचन करते हुए सब ब्राह्मणों ने श्री राम जी का राज्याभिषेक किया।
*प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा।*
*पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।*
श्री हनुमान जी महाराज भगवान श्री राम जी के चरणों में बैठे हैं। चारों भाई सिंहासन के समीप खड़े हैं।
भरत जी राम जी के पीछे छत्र लिए हुए खड़े हैं।
सब लोग अपने मन में बड़े आनंदित हो रहे हैं।
कि धन्य है हम लोग जो आज भगवान का राज्याभिषेक होते हुए देख रहे हैं।
राम जी के दर्शन कर रहे हैं। भगवान श्री राम जी ने कहा।
तुम लोग मुझे देखकर आनंदित हो रहे हो।
मुझे तो देख रहे हो।
लेकिन मेरे पीछे की और भी तो देखो ।
कौन खड़ा है?
किसी ने कहा पीछे तो भरत जी खड़े है। राम जी पूंछा?
भरत जी क्या लिए खड़े हैं?
किसी ने कहा छत्र लिए हुए खड़े हैं।
राम जी बोले बस यही तो है ।
मैं जो राजा बना हूं भरत की छत्रछाया के कारण ही राजा बना हूं ।
भरत ना होते तो मैं राजा नहीं बन सकता था।
राम जी का भाव था कि जब कोई राजा बनता है ।
तो किसी संत की छत्रछाया में ही राजा बन सकता है ।
जबतक किसी संत का हाथ न हो तब तक कोई राजा नहीं बन सकता है।
भरत जी ने कहा प्रभु।
मैं तो छत्र लेकर इसलिए खड़ा हूं कि कम से कम छत्र के साथ-साथ मैं भी आपके समीप आपके निकट ही इस छत्र की छाया में रह सकूं।
मुझे भी इस छत्र की छाया मिलती रहे।
किसी ने भरत जी से कहा।
कि आप पीछे छत्र लेकर क्यों खड़े हो?
भरत जी ने कहा।
मैं कपटी हूं कुटिल हूं।
इस शुभ अवसर पर कोई मेरा मुख ना देखें ।
इसलिए मेरे दयालु भगवान ने मुझे अपने से दूर नहीं किया।
मुझे पीठ के पीछे छुपा लिया। ताकि कोई मुझे देख न सके। भगवान श्री राम जी बोले।
नहीं नहीं बात यह नहीं है।
भरत मेरे पीछे है ।
इसका कारण दूसरा है।
जब कोई किसी से हार जाता है तो उसकी और अपनी पीठ कर लेता है।
बस यही कारण है।
मैं आज भरत से हार गया हूं ।
इसीलिए मैंने उसे अपनी पीठ दिखा दी है।
वास्तविक विजय तो भरत की ही है।
भगवान श्री राम जी सिंहासन आसीन हुए।
श्री राम जी ने ब्राह्मणों को बहुत प्रकार की दान दक्षिणा दी। जाचकों को मालामाल कर दिया। भगवान को सिंहासन पर विराजमान देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए।
*विप्रन्ह दान विविध विधि दीन्हे ।*
*जाचक सकल अजाचक कीन्हे।।*
*सिंहासन पर त्रिभुवन साईं।*
*देखि सुरन्ह दुंदुभी बजाई।।*
कागभुशुण्डि जी कहते हैं।
है पक्षीराज गरुड़ जी।
भगवन नाम की यह पावन कथा दैहिक दैविक भौतिक तीनों तापों का हरण करने वाली है।
जो मनुष्य निष्काम भाव से इसे सुनते हैं ,गाते हैं।
वह अनेक प्रकार के सुख और संपत्ति पाते हैं।
इसमें संसय नहीं है।
*जे सकाम नर सुनहि जे गावहिं।*
*सुख संपत्ति नाना विधि पावहिं।।*
*इसके आगे अगली पोस्ट में जय श्री राम।।🙏🙏*