सर्वप्रथम हमें यह जानना होगा कि हमारे वेदों में सभी वर्णों के विषय में क्या लिखा है। पर उससे पहले हमें अंग्रेजों और वामपंथियों द्वारा बतायी गयी शूद्रों की परिभाषा को भुलाना होगा।
ॠग्वेद के अनुसार :-
यस्य विश्वानि हस्तयोः पञ्च क्षितीनां वसु।
स्पाशयस्व यो अस्मधुग्दिव्येनवाशनिर्जहि ।।3।।
(ऋग्वेद, प्रथम मंडल, सूक्त 176)
अर्थात:- हे इंद्र देव! आपके हाथों में पांचों प्रकार की प्रजाओं की वैभव संपदा है। ऐसे आप हमारे विद्रोहियों को परास्त करें और आकाश से गिरने वाली विद्युत के समान ही उनको नष्ट करें।
इस मंत्र में अगस्त्य मैत्रावरुणि, पांचों प्रकार की प्रजाओं अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य, शूद्र और निषाद को खुश रखने वाले इंद्र देव की अर्चना करते हुए कहते हैं कि इन प्रजाओं को दुख देने वाले को आप अपनी शक्ति से नष्ट करें। अर्थात यहाँ सभी प्रकार की प्रजाओं के मंगल हेतु प्रार्थना की गई है। यहाँ किसी भी प्रकार का भेद भाव नहीं किया गया।
वयमग्ने अर्वता वा सुवीर्यं ब्रह्मणा वा चितयेमा जनाँ अति।
अस्माकं द्युम्नमधि पञ्च कृष्टिषूच्चा स्वर्ण शुशुचीत दुष्टरम् ।।10।।
(ऋग्वेद, द्वितीय मंडल, सूक्त 2)
अर्थात:- हे अग्निदेव! हम पराक्रम अथवा ज्ञान के द्वारा सामर्थ्यवान बनकर मानव समुदाय में श्रेष्ठ बनें। हमारा उच्च स्तरीय, अनंत तथा दूसरों के लिए अप्राप्त धन,
समाज के पाँचों वर्णों में सूर्य की तरह प्रकाशित हो।
यहाँ गृत्समद भार्गव शौनक ऋषि अग्निदेव की स्तुति करते हुए कहते हैं कि यजमान इतना सामर्थ्यवान और श्रेष्ठ बने जिससे वह अपना धन उन समाज के पाँच वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य, शूद्र और निषाद) के उन लोगों तक पहुँचा सकें जो इसे पाने में असमर्थ हैं। अर्थात यहाँ पर भी सभी वर्णों को समान दृष्टि से ही देखा गया है। और यहाँ असमर्थ व्यक्ति की सहायता का भाव विद्यमान है।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।।12।।
(ऋग्वेद, दशम मंडल, सूक्त 90)
अर्थात:- अर्थात पुरुष के विराट शरीर में ब्राह्मण उनका मुख कहलाते हैं। क्षत्रिय उनकी भुजाएं कहलाते हैं। इनकी दोनों जंघा वैश्य और दोनों चरण शूद्र कहलाते हैं।
इस पुरुष सूक्त में ब्रह्मांड की रचना करने वाले सर्वव्यापक विराट पुरुष की व्यापकता को दर्शाते हुए कहा है कि उन विराट पुरुष के मुख को ब्राह्मण कहा गया,उनकी भुजाओं को क्षत्रिय कहा गया,
जंघाओं को वैश्य कहा गया और चरणों को शूद्र कहा गया। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि शूद्रों को चरण कहा गया तो वह निचले समाज के हो गए।
ब्राह्मण को मुख इसलिए कहा गया क्योंकि जिस प्रकार मुख शरीर को सही दिशा देखने में सहायता करता है ठीक उसी प्रकार समाज को सही दिशा देने का कार्य ब्राह्मण करते हैं। क्षत्रिय को हाथ इसीलिए कहा गया क्योंकि जिस प्रकार हाथों की सहायता से शरीर की रक्षा की जाती है,
अर्थात शरीर को बाहरी प्रहारों से बचाया जाता है, उसी प्रकार समाज को बाहरी ताकतों से बचाने के लिए क्षत्रिय होते हैं। वैश्यों को जंघा इसीलिए कहा गया क्योंकि जिस प्रकार जांघ की हड्डी शरीर को आंतरिक मजबूती प्रदान करती है ठीक उसी प्रकार वैश्य भी समाज की आर्थिक व्यवस्था सुधारकर समाज को आंतरिक मजबूती प्रदान करता है। शूद्रों को पैर इसीलिए कहा गया क्योंकि पैर शरीर के संचालन के लिए सहायक होते हैं,
अगर पैर ही नहीं होंगे तो शरीर एक जगह बैठ जाएगा ठीक उसी प्रकार अगर समाज में सहायक नहीं होंगे तो समाज के बाकी सभी कार्य स्थिर हो जाएंगे और समाज की प्रगति रुक जाएगी। उन्हीं सहायकों को शूद्र कहा गया।
उसी ऋग्वेद में आगे लिखा है कि पृथ्वी भी पुरुष के चरण से उत्पन्न हुई है तो इसका अर्थ भी यही हुआ ना कि प्रथ्वी भी अछूत है। तो क्यों रह रहे हो प्रथ्वी पर? छोड़ दो!
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णा द्यौः समवर्तत।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ।।14।।
(ऋग्वेद, दशम मंडल, सूक्त 90)
अर्थात:- पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष,
शीश से द्युलोक, चरणों से भूमि व कान से दिशाएं और लोक उत्पन्न हुए।
यह वर्ण व्यवस्था हमारे वेदों में गूढ़ भाषा में बतायी गयी थी जिसे समझने के लिए हमें वेदों को पढ़ना होगा नहीं तो कोई कुछ भी कहेगा और हम उसकी बातों पर विश्वास कर लेंगे।
अथर्ववेद में भी हर जगह समानता की ही बात की गई है,
कहीं भी यह देखने को नहीं मिलता कि शूद्र निचले समाज से थे, या फिर उनके साथ शोषण होता था। यहाँ तो हर जगह समरसता और प्रेम का भाव विद्यमान है। उदाहरणार्थ:-
प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु।
प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये ।।1।।
(अथर्ववेद, 19 वा कांड, सूक्त 62)
अर्थात:- हे अग्नि! तुम मुझे देवों का प्रिय बनाओ। तुम मुझे राजाओं का भी प्रिय बनाओ। अर्थात मुझे सभी देखने वालों का,
चाहे वह शूद्र हो चाहे वह आर्य हो। मैं सभी का प्रिय बनूँ।
यहाँ पर भी सभी का प्रिय बनने के लिए अग्नि देव से प्रार्थना करी जा रही है। अब कोई भी व्यक्ति किसी का प्रिय तभी बनेगा जब वह उसके साथ अच्छा व्यवहार करेगा। यानी कि वैदिक काल में सभी इस प्रयत्न में लगे रहते थे कि वो सभी के प्रिय बनें। इसका अर्थ यह हुआ कि वह एक दूसरे के साथ अच्छा व्यवहार करते होंगे। तो शूद्रों के शोषण की बात कहाँ से आ गई? ये सोचने वाली बात है!
यजुर्वेद के अनुसार:-
रुचन्नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।
रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम् ।।47।।
(यजुर्वेद, पूर्वार्ध,
18 वा अध्याय)
अर्थात:- हे अग्निदेव! हमारे लिए ज्योति धारिए, ब्राह्मणों व क्षत्रियों में ज्योति स्थापित कीजिए,
वैश्यों और शूद्रों में भी ज्योति स्थापित कीजिए। मेरे लिए ज्योति धारिए। हम सबको ज्योतिषमान बनाने की कृपा करें।
यहाँ भी ज्योतिषमान बनाने की प्रार्थना सभी के लिए की जा है। किसी भी प्रकार का भेद भाव नहीं है। तो फिर हम कैसे कह सकते हैं भारतीय समाज में भेद भाव होता था।
यजुर्वेद में चारों वर्णों का कर्म बताते हुए कहा है कि:-
ब्रह्मणे ब्राह्मणं क्षत्राय राजन्यं मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे शूद्रं तमसे तस्करं नारकाय वीरहणं पाप्मने क्लीब माक्रयाया ऽ अयोगूं कामाय पुंश्चलूमतिक्रुष्टाय मागधम् ।।5।।
(यजुर्वेद, उत्तरार्ध,
30 वा अध्याय)
अर्थात:- जैसे चोर के लिए अंधकार,
नरक के लिए वीरघातक,
नपुंसक के लिए पाप,
खरीद के लिए पुरुषार्थी,
काम के लिए व्यभिचारी उपयुक्त होता है। अच्छी बोलने की शक्ति के लिए प्रमाण देने वाला उपयुक्त होता है। ठीक उसी प्रकार ब्राह्मण के लिए ब्रह्मज्ञान,
क्षत्रिय के लिए रक्षण,
वैश्य के लिए पालन पोषण, शूद्र के लिए सेवा कर्तव्य उपयुक्त हैं।
अब यहाँ सेवा कार्य से आशय ये नहीं है कि शूद्रों का शोषण किया जाता था क्योंकि वह उनके सेवक थे। सेवा कार्य से तात्पर्य यह है कि शूद्र अपनी सेवा बाकी के तीन वर्णों को देते थे जिसके बदले में उन्हें धन दिया जाता था।
आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो किसी भी संस्था में कार्यरत सभी कर्मचारी वेतन प्राप्त करते हैं, तो क्या इसका तात्पर्य यह है कि उनका शोषण होता है?
नहीं!
जिस प्रकार वैदिक काल कर्म के आधार पर व्यक्ति को विभाजित किया जाता था ठीक उसी प्रकार आज भी किया जाता है। आज जो भी व्यक्ति किसी दूसरे के यहाँ कार्यरत है,
उन सभी को वेदों की भाषा में शूद्र कहा गया था। अब अगर किसी शूद्र का बेटा अपना व्यापार करता है तो वह वैश्य कहलायेगा। अगर किसी शूद्र का बेटा दिशा निर्देश देने का कार्य करता है तो वह ब्राह्मण कहलायेगा। अगर किसी ब्राह्मण का बेटा किसी वैश्य के यहाँ कार्यरत है तो वह शूद्र होगा। अगर किसी वैश्य का बेटा राष्ट्र रक्षा के लिए खड़ा है तो वह क्षत्रिय होगा। अगर किसी क्षत्रिय का बेटा ब्राह्मण के यहाँ कार्यरत है तो वह शूद्र होगा। यह सब कुछ कर्म के आधार पर तय होता था ना कि जन्म के आधार पर!
जो व्यवस्था वैदिक काल में थी वही आज भी चली आ रही है। लेकिन अंग्रेजों की नीति देखिए कि खुद को उच्चतम कोटि का साबित करने के लिए वेदों में बनाई गई व्यवस्था को तो गलत बताया और हमें गुमराह किया। परंतु उसी व्यवस्था को नकल कर हमारे सामने, अपने नाम से प्रस्तुत किया जिससे हमारे भीतर उनके प्रति द्वेष भावना ना जागे।