रावण के आदेश से, लंका वासी हनुमान जी की पूंछ में आग लगाकर उसे जला देना चाहते हैं। उसके लिए वह सब अपने-अपने घरों से घी और कपड़ा लाते हैं। घी में डुबोकर कपड़े हनुमान जी की पूंछ में लपेटते है। हनुमान जी अपनी पूंछ का विस्तार करते गए। स्थिति यह हुई कि लंका में घी ही खत्म हो गया। कुछ राक्षस रावण के पास गए और कहा। महाराज बंदर की पूंछ में कपड़ा लपेटने में सारा घी ही खत्म हो गया ।रावण चिल्लाया मूर्खों। तुम्हें घी में कपड़े भिगोकर बांधने को कहा किसने था? राक्षस बोले महाराज हमने सोचा बंदर की पूंछ में थोड़ा बहुत घी लगेगा ।किंतु वह तो अपनी पूंछ को बढ़ाता ही गया। रावण ने कहा तेल में भिगोकर कपड़ा बांधों। राक्षसों ने तेल मे भिगोकर हनुमान जी की पूंछ में कपड़ा लपेटा।तेल भी खत्म हो गया। लंका में घी तेल कपडा सब खत्म हो गया। हनुमान जी अपनी पूंछ का विस्तार करते गए।
रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढीं पूंछ कीन्ह कपि खेला।।
रावण का आदेश हुआ। इस बंदर को नगर में घुमाया जाए । नगर के सब राक्षस इकट्ठे हो गए।राक्षस सैनिक हनुमान जी को लंका नगरी में घुमाते हैं ।राक्षस ठहाके मारते हैं ।कुछ लोग तो हनुमान जी को लात से ठोकर मारते हैं।और हंसी उड़ाते हैं।
कौतुक कंह आए पुरवासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हांसी।।
किंतु धन्य है हनुमान जी। कितने महान हैं। राक्षसों की इस अज्ञानता पर मंद मंद मुस्कुराते हैं। और अपने प्रभु श्री राम जी के कार्य को पूर्ण करने के लिए यह सब भी सह लेते हैं
हनुमान जी संत हैं।और संत का यह स्वभाव है सब कुछ सह लेते हैं।क्रौध नहिं करते।अब हनुमान जी की पूंछ में आग लगाई जाती है ।हनुमान जी अपना छोटा सा रूप बनाकर ब्रह्मास्त्र से बाहर निकल आते हैं। और फिर जब देखते हैं की पूंछ में आग लग चुकी है।
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयऊ परम लघु रुप तुरंता।।
अपना छोटा रूप बनाते हैं ।पूंछ का विस्तार करते हैं ।और एक ही स्थान पर खड़े खड़े अपनी पूंछ से पूरी लंका नगरी को जलाते हैं।
जैसे एक माली पाइप से बगीचे को सींचता है। हनुमान भी एक ही स्थान पर खड़े रहकर लंका को जलाते हैं।
लंका नगरी में हाय तौबा मची हुई है ।बचाओ बचाओ की आवाजें सुनाई दे रही है ।
तात मातु हा सुनिअ पुकारा।एहिं अवसर को हमहि उबारा।।*
कोई कह रहा है हमने तो पहले ही कहा था। यह कोई साधारण वानर नहीं है। कोई देवता है।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
वानर रुप धरे सुर कोई।।
चिल्लाते हुए सब रावण के पास गये रावण को भी कुछ उपाय नहीं सूझ रहा है। उसने आग बुझाने के लिए पानी के बादल बुलवाए।अब बादल बरसना चाहते हैं लंका में। किंतु भगवान की कृपा से पानी बरस रहा है लंका से २किल़मीटर दूर। फिर रावण ने प्रलय के बादल बुलवाए। किंतु प्रलय के बादलों का पानी भी लंका में नहीं बरसा। बड़े बैग से पवन चल रही थी। पूरी लंका नगरी धूं धूं करके जल रही थी।
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला।।
हनुमान जी ने केवल एक विभीषण का भवन छोड़ा। बाकी लंका नगरी को जला डाला।
जारा नगर निमिष एक माहीं।
एक विभीषण कर गृह नाहीं।।
लंका जलाकर हनुमान जी समुद्र में कूद गए ।
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।।
पूंछ की आग बुझा कर माता सीता के सामने उपस्थित हुए। माता सीता को प्रणाम किया ।
जनक सुता के आगे,
ठाढ भयउ कर जोरि।।
सीता माता हनुमान जी को देखकर बड़ी प्रसन्न हुई ।पूछती है हनुमान क्या कारण है। कि तुमने सारी लंका को जला दी। किंतु तुम्हारी पूंछ नहीं जली? हनुमान जी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया माता। यह लंका अग्नि से नहीं जली है। यह रामजी के रोस से जली है। और भला उस अग्नि में मेरी पूंछ कैसे जल जाती ।उस अग्नि में तो आप विराजमान थी। और यह मेरी पूंछ नहीं जली उसका भी एक कारण है ।कि मेरे हृदय में राम जी विराजमान है। और मेरी पूंछ पीछे है ।राम जी के कारण ही तो मेरी पूंछ है।वरना इस बानर को कौन पूछता। माता सीता हनुमान जी के बातों से बड़ी प्रसन्न होती है। हनुमान जी अब जानकी माता से विदा लेना चाहते हैं ।कहते हैं माता, जिस तरह राम जी ने मुझे सह दानी के रूप में मुद्रिका दी थी ।आप भी मुझे राम जी को देने के लिए कुछ सहदानी दीजिए।
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसे रघुनायक मोंहि दीन्हा।।
श्री जानकी जी हनुमान जी को चूड़ामणि उतार कर देती हैं।
चूड़ामणि उतारि तब दयउ।।
और कहती हैं हनुमान। तुम मेरा राम जी से प्रणाम कहना। और प्रणाम इसी तरह कहना। श्री माता जानकी जी भूमि पर अपने दोनों हाथ रखकर कर नेत्रों में जल भरकर कह रही हैं। की जिस तरह मैं प्रणाम कह रही हूं उसी तरह तुम रामजी से मेरा प्रणाम कहना।
कहेहु तात अस मोरि प्रनामा।।
हनुमान तुम कह रहे थे। कि प्रभु ने तुम्हारा स्मरण करते हुए अपने वाणौं की ही सुध भुला दी है। तो तुम उन्हें अपने वाणौं की याद दिलाना।और इन्द्र पुत्र जयंत की घटना सुनाकर अपने वाणों का स्मरण कराना।
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
वाण प्रताप प्रभहि समुझाएहु।।
और मेरी सारी विपत्ति श्री राम जी से जाकर कहना। हनुमान जी श्री सीता जी से विदा लेकर लंका से लौटते हैं। समुद्र के इस पार आते हैं ।वानर सेना हनुमान जी को देखकर प्रसन्न होती हैं।
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा।।
सब अति शीघ्र यह समाचार रामजी को सुनाने के लिए चलते हैं ।किस कंधा नगर से बाहर बाग में सब लोग प्रेम से फल खाते हैं।
तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए।।
रखवाले सुग्रीव जी को यह शिकायत करते हैं कि अंगद युवराज ने फलों का बगीचा उजाड़ दिया है। सुग्रीव जी यह समाचार सुनकर प्रसन्न होते है। कि अवश्य वानर सेना ने श्री सीता जी का समाचार पा लिया है। नहीं तो इस तरह आकर बाग में फल नहीं खाते ।
सुनि सुग्रीव हरष कपि,
करि आए प्रभु काज।।
हनुमान जी सहित सभी वानर सेना श्री राम जी के पास आती हैं। यह प्रसंग अगली पोस्ट में