क्या कभी भारतीय परंपराओं को समझना चाहा?
क्या भारतीय परंपराओं के असली मायने को समझने की कोशिश की?
क्या कभी सनातन धर्म के पीछे निहित भावनाओं को महसूस करना चाहा?
मैं एक बार फिर से आप का ध्यान उसी बात की ओर केंद्रित करना चाहता हूँ कि सनातन धर्म में सदैव स्त्रियों का सम्मान किया जाता है। स्त्रियों को हमेशा ही उच्च कोटि का दर्जा दिया गया है।
सनातन धर्म में स्त्रियों पर किसी भी प्रकार की पाबंदी हो, ऐसा कोई भी जिक्र हमारे वैदिक ग्रंथों में नहीं मिलता। कुछ नियम अवश्य बनाए गए हैं जिनका पालन सिर्फ स्त्रियों को ही नहीं अपितु पुरुषों को भी करना पड़ता था और यह नियम अंधविश्वास नहीं अपितु संस्कार वान होने का एक तरीका था।
हजारों वर्षों की पराधीनता के बाद भारत ने अपनी संस्कृति खोई है, अपना इतिहास खोया है। आज भारतीय परंपरा मात्र अंधविश्वास बनकर रह गई हैं, क्योंकि लोग उन्हें समझना नहीं चाहते, उसके पीछे छिपे विज्ञान को जानना नहीं चाहते, उनके पीछे निहित भावनाओं को महसूस नहीं करना चाहते।
परंतु जब सनातन धर्म पर प्रश्न चिन्ह लगाने की बारी आएगी तो सर्वप्रथम आगे आएंगे, क्योंकि यह उनकी अभिव्यक्ति की आजादी बन जाती है।
एक बात अवश्य ध्यान रखनी चाहिए कि जब-जब प्रश्न उठता है, उसका उत्तर मिलता है। वही उत्तर आज मैं देना चाहता हूँ, वह भी अभिव्यक्ति की आजादी के तहत।
अंग्रेजों ने तलवार के साथ-साथ कलम से भी प्रहार किया था। अंग्रेजों ने हमारे धार्मिक ग्रंथों में मैक्स मूलर की सहायता से विक्षेप किया और वही विक्षिप्त धार्मिक ग्रंथ भारत के नागरिकों को पढ़ा कर, उनके मन में अपने ही धार्मिक ग्रंथों के प्रति घृणा भर दी। और इसी बात का हवाला देकर सभी गुरुकुलों को बंद करा दिया। और तो और भारत में भी दोगले लोगों की कमी नहीं थी, जिन्हें अपने देश के लोगों से ज्यादा विदेशी लोगों पर विश्वास था। यही कारण बना भारतीय संस्कृति और सभ्यता के पतन का।
अंग्रेजों द्वारा दसों दिशाओं से प्रहार किया गया। अंग्रेजों द्वारा यह झूठ फैलाया गया कि सनातन संस्कृति में और प्राचीन भारत में स्त्रियां अपने पति की मृत्यु के पश्चात सफेद कपड़े पहनती थीं, और समाज उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करता था। जिससे कि उनका शोषण होता था।
परंतु यह पूर्णतः असत्य है। परंतु यह विचार लोगों के मन में आये कहाँ से?
इस पर विचार करना जरूरी है!
गाँव के बुजुर्ग पुरुषों द्वारा सफेद कपड़े धारण करना
ऊपर की तस्वीर में आप देख सकते हैं कि पुरुष भी सफेद रंग पहनते थे। और अगर सनातन के धार्मिक ग्रंथों को देखा जाए तो ऐसा जिक्र कहीं भी नहीं मिलता कि स्त्रियों को पति की मृत्यु के पश्चात सफेद कपड़े पहनने ही चाहिए। कुछ नियम अवश्य बनाए गए थे जो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए थे। आपने अपने घर में अपने बुजुर्गों को सफेद कपड़ों में देखा होगा चाहे वह आपके दादा जी हों या आपकी दादी जी हों। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उनका शोषण किया जा रहा है, अपितु यह तो उनकी सात्विकता को दर्शाता है। और उन्हें ऐसा करने के लिए किसी ने मजबूर भी नहीं किया, बल्कि यह रंग तो उन्होंने अपनी इच्छा के अनुसार अपनाया था।
अब प्रश्न यह उठता है कि सात्विकता को दर्शाने के लिए सफेद रंग को ही क्यों चुना गया, कोई अन्य रंग क्यों नहीं?
अब बुजुर्गों द्वारा करे गए कार्यों के पीछे कुछ ना कुछ रहस्य तो अवश्य होता है। उनके द्वारा जो बातें बताई जाती हैं वह पूर्णतया सत्य होती हैं और महत्वपूर्ण भी होती हैं।
सर्वप्रथम हम सफेद रंग का महत्व जानने की कोशिश करते हैं, जिसके कारण से बुजुर्गों ने उसे अपनाया था।
अगर वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो सफेद रंग एक तटस्थ रंग है जो सात रंगों के मिश्रण से बना है। जब सात तरह के रंग एक साथ मिलते हैं तो वह न्यूट्रल हो जाते हैं अर्थात तटस्थ हो जाते हैं और सफेद रंग में परिवर्तित हो जाते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि संसार के सभी रंगों का अनुभव करने के बाद एक बुजुर्ग व्यक्ति तटस्थ हो जाता है अर्थात अनुभवी हो जाता है,
अब उसे अन्य किसी सांसारिक रंग की इच्छा नहीं होती इसीलिए वह सफेद वस्त्र धारण करता है।
दूसरा कारण यह हो सकता है कि सफेद रंग का स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है जिसकी आवश्यकता बुजुर्गों को अत्यधिक होती है इसीलिए उन्होंने सफेद वस्त्र धारण किए। सफेद वस्त्र पहनने से ताजगी और शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है। सफेद वस्त्र पहनने से शरीर में एक नई ऊर्जा का संचालन होता है और इसी वजह से हमारे वृद्ध जनों द्वारा सफेद वस्त्र अपनाए गए।
सफेद रंग पवित्र होता है अर्थात शुद्ध होता है जो किसी व्यक्ति की सादगी को दर्शाता है। सफेद रंग शांति का भी प्रतीक होता है। आपने अकसर देखा होगा कि वृद्ध लोगों का स्वभाव अत्यंत कोमल और निश्छल होता है। उनके स्वभाव में एक अलग ही प्रेम झलकता है। अब आप मानें या ना मानें, यह सफेद वस्त्रों के कारण ही होता है।
सफेद रंग के प्रभाव के कारण मन एकाग्र रहता है। आपने अकसर देखा होगा कि विद्यालय में जाने वाले छात्र-छात्राएं सफेद रंग के वेश पहनते हैं ऐसा इसीलिए कि उनका मन पढ़ाई में एकाग्र रहे। ठीक उसी प्रकार बुजुर्गों द्वारा भी सफेद वस्त्र इसीलिए पहने जाते हैं कि उनका मन भी ईश्वर भक्ति में एकाग्र रहे।
सफेद वस्त्र शोक का नहीं अपितु ज्ञान का प्रतीक होता है जिसे माता सरस्वती स्वयं धारण करती हैं। जब कोई व्यक्ति बुजुर्ग हो जाता है तो उसे संसार के रंगों का मोह नहीं रहता,
जिसके कारण उसे एक ज्ञान की प्राप्ति होती है कि सांसारिक रंगों में कुछ नहीं रखा है, जो कुछ है वह ईश्वर है। इसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए बुजुर्गों द्वारा सफेद वस्त्र पहने जाते थे।
सफेद रंग सर्व गुण संपन्न होता है जिसे छात्र-छात्राएं पुरुष महिलाएं बुजुर्ग लोग कोई भी पहन सकता है। यह बाध्य नहीं है कि सफेद वस्त्रों को केवल वृद्ध लोग ही पहन सकते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब सफेद रंग के इतने महत्व हैं तो फिर यह चलन कहाँ से शुरू हुआ कि समाज विधवा स्त्री को सफेद वस्त्र पहनने के लिए बाधित करने लगा?
विधवा द्वारा सफेद कपड़े पहनना: एक झूठ
एक काल्पनिक उदाहरण को देखते हैं। एक घर में चार लोग रहते हैं:- रमेश,
उसके माता-पिता और उसकी पत्नी। अब होता यह है कि किसी दुर्घटना में रमेश के पिता की मृत्यु हो जाती है और उसकी माता भी अब वृद्ध हो चुकी हैं, तो उन्होंने भी सफेद वस्त्र धारण कर लिए (अपनी इच्छा के अनुसार)। परंतु जब रमेश उनसे यह बात पूछता है कि उन्होंने सफेद वस्त्र क्यों पहने हैं, तो उसकी माता उसका उत्तर नहीं दे पातीं। तो रमेश ने मन ही मन यह विचार बना लिया की पिता की मृत्यु के बाद माता ने सफेद वस्त्र धारण किये हैं और रमेश की पत्नी सोचती है कि जब पति की मृत्यु हो जाती है तो उसकी पत्नी सफेद वस्त्र धारण करती है। यही बात उन्होंने अपने बच्चों को बताई, उनके बच्चों ने अपने बच्चों को बताई,
और यही क्रम लगातार चलता रहा।
जैसे-जैसे यह क्रम आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे ही इस बात का प्रचार होता गया। और रही सही कसर अंग्रेजों ने पूरी कर दी कि सनातन संस्कृति में विधवाओं का शोषण होता है।
परंतु रमेश की माता ने सफेद वस्त्र धारण किए, इसका कारण यह था कि वह सादगी पूर्ण जीवन जीना चाहती थीं। उन्हें अब संसार के किसी भी रंग में कोई दिलचस्पी नहीं रही थी। इसी कारण उन्होंने सफेद वस्त्र पहने। क्योंकि प्राचीन काल में महिलाएं अपने पति को ही सब कुछ मानती थीं, और जब वही नहीं रहा तो उनके जीवन में बाकी सभी रंग फीके हो जाते थे।
यह शोषण नहीं अपितु सम्मान था जो भारतीय महिला द्वारा अपने पति को दिया जाता था,
और यही सम्मान पुरुष भी अपनी पत्नी को देते थे।
ऐसा किसी धर्म ग्रंथ में नहीं लिखा है, यह तो प्रेम पूर्वक किया जाता था ना कि शोषण करने की दृष्टि से। परंतु पाश्चात्य की संस्कृति के प्रवाह से भारतीय संस्कृति धूमिल होकर रह गई।
सनातन संस्कृति तो कहती है कि :-
उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि ।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सम्बभूथ ।। 8 ।।
(ऋग्वेद, 10 वा मंडल, सूक्त 18)
अर्थात: (पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा पत्नी से) उठ! तुझे संसार वापस बुला रहा है, तू किसका पक्ष ले रही है जो मृत शरीर है। जिसने इस संसार में तेरा हाथ पकड़ा था और आकर्षित करता था वह मुक्त होकर चला गया।
अतः सनातन संस्कृति को दोष देने से पूर्व सनातन संस्कृति क्या कहती है यह अवश्य जानना चाहिए। बहुत ही सोच विचार करके, विभिन्न माध्यमों द्वारा सनातन संस्कृति को धूमिल करने का प्रयास होता आ रहा है, जिनमें महत्वपूर्ण भूमिका टीवी सीरियल्स और सिनेमा निभाते हैं।
जैसे कि आपने देखा होगा कि अगर किसी स्त्री ने भारतीय कपड़े पहन रखे हैं तो वह कोई सास ही होगी जो अपनी पुत्रवधू पर अत्याचार करती होगी। और वही पुत्रवधू सभ्य और शालीन दिखाई जाएगी जो पाश्चात्य कि संस्कृति का अनुकरण करेगी।
अब आप कहेंगे कि ऐसी बातों पर कौन ध्यान देता होगा! अब आप ध्यान नहीं देते तो इसका अर्थ यह नहीं कि कोई नहीं देता होगा। आज तक सनातन संस्कृति पर जो भी आघात हुए हैं,
वह बहुत सोच समझ कर ही हुए हैं।
हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जब भी कोई बात सनातन धर्म के विरोध में बोली जाए तो पहले उसे खुद परखें फिर उस पर विश्वास करें। अन्यथा वही होगा जो आज तक होता आया है।
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