Good Night #शुभ_रात्रि
समानता कोई नई अवधारणा नहीं है।सदियों से महापुरुषों ने समानता की अवधारणा को इंसानों के दिलों में बसाने के लिए संघर्ष किया है। ऐसे ही महापुरुष श्रीरामानुजाचार्य स्वामी थे जिन्होंने ११ वीं शताब्दी में विश्व को समानता का संदेश दिया।
स्वाधीनता तब और अधिक सार्थक हो जाती है, जब वह उस परंपरा के वटवृक्ष की छाया के नीचे पुष्पित-पल्लवित होती है, जहां सभी नागरिक समान हों। वैसे भी हमारे सभी प्राचीन धर्मग्रंथ समानता को सवरेपरि मानते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता (५.१८) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणो गवि हस्तिनी। शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: ससमदर्शिन:।।
अर्थात एक विद्वान अपने दिव्य ज्ञान की आंखों से ब्राह्मण, चांडाल, गाय, हाथी व कुत्ते के आंतरिक आत्मा को समान रूप से देखता है। समानता कोई नई अवधारणा नहीं है। नई अवधारणा तो असमानता है, जो ऋषियों व समाज सुधारकों के प्रयासों के बावजूद बार-बार अपना कुरूप सिर उठा लेती है। क्योंकि हम यह महसूस नहीं करते हैं कि जितनी भी असमानताएं हैं, वे भौतिक शरीर के स्तर पर हैं। ईश्वर के दृष्टिकोण से हम सब बराबर हैं। सभी के भीतर अवस्थित आत्माएं परमात्मा का हिस्सा हैं। रंग, जाति, पंथ या लिंग आधारित या कोई भी असमानता सिर्फ भौतिक स्तर पर ही है। दुर्भाग्य से, सभी प्राणियों की एकता को भूलकर मानव इन अस्थायी मतभेदों को महत्व देकर विभाजन उत्पन्न करता है। जबकि हमें इस संसार रूपी सागर को पार करने के लिए कौशल विकास में दूसरों की मदद करनी है।
समानता का यह मतलब नहीं कि सब लोग एक जैसे हो जाएंगे। इसका मतलब है कि हर किसी को सर्वोच्च स्तर तक अपने विकास का भरपूर अवसर मिलेगा। एक झाड़ी को अच्छी झाड़ी बनने का अवसर मिलेगा, न कि पेड़ बनने का। इसी तरह एक पेड़ को अच्छा पेड़ बनने का मौका मिलेगा, न कि जंगल बनने का। सदियों से महापुरुषों ने समानता की अवधारणा को इंसानों के दिलों में बसाने के लिए संघर्ष किया है। ऐसे ही महापुरुष श्रीरामानुजाचार्य स्वामी थे, जिन्होंने ११वीं शताब्दी में विश्व को समानता का संदेश दिया। श्रीरामानुजाचार्य श्रीवैष्णववाद के सबसे महत्वपूर्ण प्रतिपादक हैं। उनकी विरासत सिर्फ यही नहीं है कि उन्होंने कितने दिलों को छुआ है, बल्कि असली विरासत यह है कि वे कितने आत्माओं में बदलाव लाए। हम उनके वंशज हैं और उनकी मशाल को आगे बढ़ाने के लिए धन्य हैं। अपने जीवन के लगभग पांच दशक उन्होंने भगवान की सेवा के रूप में सभी प्राणियों की सेवा करने में बिताया। ऐसा उन्होंने समानता की अवधारणा को प्रचारित करते हुए किया।
श्री रामानुजाचार्य का जन्म लगभग एक हजार साल पहले हुआ था, तब समाज के मानदंड आज की तुलना में कहीं अधिक कठोर थे। उस समय मंदिर में प्रवेश करना, मंत्रों का जाप करना, वेद सीखना महिलाओं, निम्नजातियों और दलितों के लिए वर्जित था। शुरुआत में व्यवसायों के आधार पर जाति की व्यवस्था शुरू हुई थी, लेकिन दुर्भाग्य से इसका परिणाम छुआछूत की एक समस्या के रूप में सामने आया। श्रीरामानुजाचार्य वसंत ऋतु की तरह चुपचाप कई फूलों को अपनी क्षमता तक खिलने में मदद करने के उद्देश्य से निकल पड़े। उन्होंने सभी जाति के लोगों के साथ अपना मंत्र साझा किया, जो उन्हें १८ बार १०० मील की पैदल यात्र करने के बाद अपने गुरु से प्राप्त हुआ था। वह अपने मंत्र को साझा करने के लिए लोगों में सिर्फ एक ही योग्यता देखते थे कि वह व्यक्ति समर्पित और सीखने के लिए उत्सुक हो। श्रीरामानुजाचार्य के समय में मंदिर ही ज्ञान, रोजगार और संस्कृति के केंद्र हुआ करते थे। वे ही विश्वविद्यालय, विक्रय केंद्र और सभा स्थल सब थे, किंतु वे समाज के एक विशेष वर्ग और जाति के नियंत्रण में थे। श्रीरामानुजाचार्य ने मंदिरों में शेष जाति के व्यक्तियों को भी ५० प्रतिशत कामकाज आवंटित करके समावेशिता को प्रोत्साहित किया। तभी से मंदिरों में प्रवेश के लिए जाति के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं रह गया। हालांकि भारत में विदेशी शासन में जातिवाद की वापसी फिर से हुई और जाति का ‘बांटो और राज करो’ की चाल के रूप में उपयोग किया गया।
. 🚩जय सियाराम🚩
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