. #शुभ_रात्रि
परिस्थिति एवं वातावरण के प्रभाव से बहुत बार मन पर उनका असर होने लगता है। उस स्थिति में कुविचारों के विपरीत, सशक्त, सद्विचारों से उन्हें काटना चाहिए। जैसे स्वार्थपरता, धोखेबाजी, कामचोरी के विचार आयें तो- श्रमशीलता तथा प्रामाणिकता से लोगों की अद्भुत प्रगति के तथ्यपूर्ण चिन्तन से उन्हें हटाया जा सकता है। यदि किसी के विपरीत आचरण से क्रोध आये या द्वेष उभरे तो उसकी मजबूरी समझकर उसके प्रति करुणा, आत्मीयभाव से उसे धोया जा सकता है। यदि विद्या सत् साहित्य के स्वाध्याय, सत्पुरुषों की संगति एवं ईमानदारी से किये गये आत्म चिन्तन से ही पायी जा सकती है।
लोहा, लोहे से कटता है। गरम लोहे को ठंडे लोहे की छैनी काटती है। चुभे हुए कांटे को निकालने के लिए कांटे का ही प्रयोग करना पड़ता है। विष को विष मारता है। हथियार से हथियार का मुकाबला किया जाता है। किसी गिलास में भरी हवा को हटाना हो तो उसमें पानी भर देना चाहिए। पानी का प्रवेश होने से हवा अपने आप निकल जायेगी। बिल्ली पाल लेने से चूहे घर में कहां ठहरते हैं? कुविचारों को मार भगाने का एक तरीका है कि उसके स्थान पर सद्विचारों की स्थापना की जाय। मन में जब सद्विचारों भरे रहेंगे तो उस भीड़ से भरी धर्मशाला को देखकर अपने आप लौट जाने वाले मुसाफिर की तरह कुविचार भी कोई दूसरा रास्ता टटोलेंगे। स्वाध्याय और सत्संग में जितना अधिक समय लगाया जाता है उतनी ही कुविचारों से सुरक्षा बन पड़ती है। रोटी और पानी जिस प्रकार शरीर की सुरक्षा और परिपुष्टि के लिए आवश्यक हैं उसी प्रकार आत्मिक स्थिरता और प्रगति के लिए सद्विचारों, सद्भावों की प्रचुर मात्रा हमें उपलब्ध होनी ही चाहिए। इस आवश्यकता की पूर्ति स्वाध्याय और सत्संग से, मनन और चिन्तन से पूरी होती है। युग-निर्माण के लिए- आत्म-निर्माण के लिए यह प्रधान साधन है। संकल्प की, मन की शुद्धि के लिए इसे ही रामबाण दवा माना गया है।
सामाजिक न्याय का सिद्धान्त ऐसा अकाट्य तथ्य है कि इसकी एक कदम के लिए भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। एक वर्ग के साथ अन्याय होगा तो दूसरा वर्ग कभी भी शान्तिपूर्वक जीवन यापन न कर सकेगा। लोहे की छड़ को एक सिरे पर गरम किया जाय तो उसकी गरमी धीरे-धीरे दूसरे सिरे तक भी पहुंच जायेगी। सारी मनुष्य जाति एक लोह की छड़ की तरह है । उसको किसी भी स्थान पर गरम-ठण्डा किया जाय तो दूसरे भागों पर उसका प्रभाव अनिवार्य रूप से पड़ेगा। सामाजिक न्याय सबको समान रूप से मिले, प्रत्येक मनुष्य मानवोचित अधिकारों का उपयोग दूसरों की भांति ही कर सके, ऐसी स्थिति पैदा किये बिना हमारा समाज शोषण मुक्त नहीं हो सकता। आर्थिक समता की बात समाजवादी विचारधारा के द्वारा राजनीतिक स्तर पर बड़े जोरो से कही जा रही है। साम्यवादी देश उग्र रूप से और समाजवादी देश मन्थर गति से इसी मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं। अध्यात्मवाद की शिक्षा सनातन काल से यही रही है। यहां परिग्रह को सदा पाप माना जाता रहा है। सामान्य जनता के स्तर से बहुत अधिक सुख साधन प्राप्त करना या धन सम्पत्ति जमा करना यहां सदा से पाप कहा गया है और यही निर्देश किया गया है कि सौ हाथों से कमाओ भले ही, पर उसे हजार हाथों से दान अवश्य कर दो। अर्थात् अगणित बुराइयों को जन्म देने वाली संग्रह वृत्ति को पनपने न दो ।
कोई व्यक्ति अपने पास सामान्य लोगों की अपेक्षा अत्यधिक धन तभी संग्रह कर सकता है जब उसमें कन्जूसी, खुदगर्जी, अनुदारता और निष्ठुरता की भावना आवश्यक से अधिक मात्रा में भरी हुई हो। जबकि दूसरे लोग भारी कठिनाइयों के बीच अत्यन्त कुत्सित और अभावग्रस्त जीवनयापन कर रहे हैं, उनके बच्चे शिक्षा और चिकित्सा तक से वंचित हो रहे हैं, तब उनकी आवश्यकताओं की ओर से जो आंखें बन्द किये रहेगा, किसी को कुछ भी न देना चाहेगा, देगा तो राई रत्ती को देकर पहाड़-सा यश लूटने का ही अवसर मिलेगा तो ही कुछ देगा, ऐसा व्यक्ति ही धनी बन सकता है। सामाजिक न्याय का तकाजा यह है कि हर व्यक्ति उत्पादन तो भरपूर करे पर उस उपार्जन के लाभ में दूसरों को भी सम्मिलित रखे। सब लोग मिल-जुलकर खायें - जियें और जीने दें। दुख और सुख को सब लोग मिल बांट कर भोगें । यह दोनों ही भार जब एक के कन्धे पर आ पड़ते हैं तो वह दब कर चकनाचूर हो जाता है। पर यदि सब लोग इन्हें आपस में मिल कर बांट लेते हैं तो किसी पर भार भी नहीं पड़ता, सबका चित्त हल्का रहता है और समाज में विषमता का विष भी उत्पन्न नहीं हो पाता ।
. *🚩जय राधे कृष्ण 🚩*