जय श्री राम।।
भगवान कहते हैं अपनी भक्ति में सुदृढ़ निष्ठा होना चाहिए।
अपनी भक्ति के प्रति सुदृढ़ रहें।
किंतु दूसरे के विचारों का खंडन भी ना करें।
क्योंकि रास्ते सभी सही हैं।
सभी रास्ते भगवान तक ले जाने का मार्ग है।
अंतर केवल इतना है कि,
मार्ग अलग-अलग है।
केवल मैं सही हूं मेरा मार्ग सही है।
दूसरे जिस मार्ग से चल रहें वह ठीक नहीं है।
ऐसा हठ नहीं करना चाहिए।
*भगति पक्ष नहीं हठ सठिताई।*
जैसे की तुलसीदास जी ने लिखा कि राम-राम कहो।
अब राम राम अच्छे मन से कहो या बुरे मन से कहो।
प्रेम से कहो या आलस में कहो।
इसका शुभ फल हमें अवश्य मिलेगा।
ऐसा हमारा दृढ़ निश्चय होना चाहिए।
*भांय कुभांय अनख आदतेहु।*
*राम जपत मंगल दिसि दसहु।।*
राम-राम जपना हमारे लिए यह मार्ग हो गया है।
*जबहि नाम हृदय रखा,भया पाप का नास,जैसे तिनगी आग से,जरे पुरानी घास।।*
ऐसा हमारा निश्चय होना चाहिए।
अब संकट यहां से प्रारंभ होता है,
जब हम राम राम जपते हैं।
और जब हमें कोई यह कहे कि,
इस तरह राम-राम जपने से क्या होगा।?
यह सुमिरन करने का तुम्हारा कौन सा तरीका है।?
जिस तरह तुम राम राम कह रहे हो क्या इसमें कल्याण होगा?
शक्कर शक्कर कहने से क्या मुंह मीठा होता है।
मुंह तो मीठा तभी होगा जब शक्कर खाई जाएगी।
मुंह से राम-राम कह रहे हो।
हाथ में माला रखी है , जुबान से राम राम जप रहे हो।
और तुम्हारा मन चारों दिशाओं में घूम रहा है।
यह कौन सा सुमिरन हुआ?
यह तो सिमरन करने का कोई तरीका नहीं है।
*माला तो कर में फिरे,जीभ फिरे मुख मांहिं,मनवा तो चहुं दिसि फिरे,यह तो सुमिरन नाहिं।।*
यह बातें कबीर दास जी ने कही है।
कबीर दास जी की बातें उनके विचारों के अनुसार ठीक हो सकती है।
कबीर दास जी अपने विचारों के अनुसार बात कह रहे हैं।
और तुलसीदास जी अपने भाव के अनुसार बात कह रहे हैं।
बातें दोनों की सही है।
भाव भी और विचार भी दोनों मार्ग भगवान तक जाने के मार्ग हैं।
इसमें बुराई कुछ नहीं है।
किसी ने हमारी साधन प्रक्रिया का खंडन किया।
और हमने उसकी बात मान ली।
हम डिग गए।
माला भी नीचे रख दी।
और राम-राम कहना भी छोड़ दिया।
हमें लगा शायद यह व्यक्ति ठीक कह रहा है।
भजन करने का तरीका कोई और है।
हम जो कर रहे हैं वह ठीक नहीं कर रहे हैं।
हमें भजन करने की विधि किसी से जाकर सीखना पड़ेगी।
बस यही से हमारी भक्ति बाधित हो जाती है।
जो कर रहे थे उसे छोड़ दिया।
पहले वाला छोड़ दिया ।
और दूसरा साधना हमें मिला नहीं।
संत कहते हैं यह जितने भी कुतर्क करने वाले हमारे जीवन में आते हैं।
हमारी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए आते हैं।
जबकि होना यह चाहिए ।
कि हमें हमारे गुरुदेव ने,
भक्ति का जो मार्ग बताया है ।
जो साधन बताए हैं ।
उस पर दृढ़ रहें। उससे डिगे नहीं।
ऐसा नहीं है कि केवल यह कुतर्क करने वाले हम साधारण मनुष्यों के जीवन में ही आते हैं।
भक्ति की निष्ठा की परीक्षा तो बढ़ो बढ़ो की हुई हैं।
माता पार्वती की भी भक्ति की परीक्षा हुई थी।
सप्त ऋषियों ने कितना प्रलोभन दिया। माता पार्वती को।
पार्वती जी को भक्ति से डिगाने के कितने यत्न किए।
पार्वती जी के गुरु,
नारद जी के संबंध में कितना भला बुरा कहा सप्तऋषियों ने।
सप्त ऋषियों ने यहां तक कहा कि, तुम उस गुरु की बातों में आ गई,।
जिसने आज तक किसी का घर नहीं बसने दिया है।
किंतु माता पार्वती की भक्ति दृढ़ थी।
अडिग रही अपने गुरुदेव के वचनों पर।
गोस्वामी जी श्री तुलसीदास जी महाराज ने, रामचरितमानस में यह उदाहरण हम साधारण मानवों के लिए दिए हैं।
की इन उदाहरणों से प्रेरणा लेकर,
अपने गुरु के वचनों पर अडिग रहें।जिस तरह पार्वती जी रहीं।
जो साधन आपके गुरु ने बताया है वह यथार्थ है, मुक्ति का मार्ग है।
इसे छोड़ना नहीं है।
यदि कोई अलग साधन कर रहा है तो उसे करने दो।
उसमें बुराई खोजने का प्रयास मत करो।
अक्सर होता यह है कि, लोग एक दूसरे को उपदेश करते हैं।
जो वह कर रहे हैं वह ठीक है।
और जो दूसरे कुछ अलग साधन कर रहे हैं वह ठीक नहीं है।
ऐसा विचार मन में नहीं आना चाहिए।
संत कहते हैं अपने-अपने घरों का कचरा साफ करो।
दूसरों की परवाह मत करो।
श्री राम जी सभी जनों को इस तरह का उपदेश करते हैं।
सब अपने-अपने घरों को जाते हैं
एक दिन गुरु वशिष्ट जी राम जी के पास चलकर आए।
और आकर कहने लगे कि मुझे आपसे एकांत में कुछ बातें करना है।
*यह प्रसंग अगली पोस्ट में जय श्री राम।*