पितृश्राप ही पितृदोष है किंतु बताया जाएगा इसश्राप से मुक्ति आपके घर में कलह क्लेश,धन, स्वास्थ्य, संतान का उच्च भविष्य पर कैसे क्रिया करती है एवं इसे कैसे ठीक किया जा सकता है ….
क्या सब आत्माएँ पितृलोक पहुँचती है?
गरूण पुराण विभिन्न प्राचीन ग्रंथों में दिवंगत आत्माओं के लिए 'पित्तर' शब्द प्रयुक्त किया गया है। यद्यपि यह 'पित्तर' शब्द मूलतः पिता के समानार्थक रूप में प्रयुक्त होता है, किंतु मुक्ति कर्म के अन्तर्गत इस 'पित्तर' शब्द का प्रयोग मृत्यु को प्राप्त हुए सभी सगोत्री संबन्धियों यथा माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ ताई, नाना नानी, बडा या छोटा भ्राता-बहिन आदि के लिए प्रयुक्त होता है। क्योंकि इन सभी सगोत्री संबन्धियों का एक-दूसरे के साथ रक्त एंव शरीर का संबन्ध रह होता है। यद्यपि कुछ ग्रंथों में 'पित्तर' शब्द की जगह दिवंगत आत्मा के लिए 'पितृ' शब्द का प्रयोग भी हुआ है। यह शब्द भी 'पित्तर' का ही समानार्थक माना गया है।
शास्त्रों में सात लोकों का बहुत विस्तार से वर्णन हुआ है। यह सप्त लोक है- ब्रह्मलोक, सूर्यलोग, स्वर्गलोक, चन्द्रलोक, पितृलोक, मृत्युलोक और पाताललोक।
इनमें मृत्युलोक के साथ जीवित मनुष्यों अर्थात् समस्त प्राणियों का संबन्ध रहता है, जबकि मृतात्माओं का संबन्ध पितृलोक के साथ माना गया है। यह बात भी सत्य है कि सभी मृतात्माएं पितृलोक तक नहीं पहुंच पाती है। उस पितृलोक तक केवल शुभ कर्म करने वाली आत्माएं ही पहुँचती है। अन्य दिवंगत मृतात्माओं को अपने-अपने कर्मों के अनुसार मृत्युलोक में रहकर ही भूत, प्रेत, पिशाचादि जैसी निम्न स्तरीय योनियों में भटकना पडता है। रूद्र, वसु और आदित्य पितृलोक के देव माने गये है। इस पित्तरलोक में पहुँचकर कुछ शुभ कर्मों वाली आत्माएं भी देव तुल्य बन जाती है। इसलिए उन पित्तरों को 'पितृ देव' कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि भीष्म पितामह को पितृ देव के रूप में पितृलोक में विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ है।
महर्षि पाराशर ने तो पितृदोष के संबन्ध में यहां तक लिख दिया है-
'पितृ शापात्सुतः क्षयः'
अर्थात
पितृदोष के कारण संतान के नष्ट हो जाने व वंश क्षय तक का खतरा भी पैदा हो जाता है।
जिन परिवारों में संतानों द्वारा अपने माँ-बाप आदि बुजर्गो का पूर्ण मान-सम्मान नहीं किया जाता अर्थात् जो संताने अपने मां-बाप को जीते जी परेशान रखकर कष्ट देती रहती है या जो पुत्र मृत्यु उपरान्त अपने मां-बाप की विधि संवत् अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न नहीं कराते, उन परिवारों में मां-बाप की मृत्यु के बाद अनायास ही नाना प्रकार की समस्याएं उठ खडी होती है। यही पितृदोष या पितृश्राप का 'फल' होता है।
पितृदोष की वजह से ऐसे परिवारों में अनायास ही अनेक तरह के उपद्रव खड़े होने लग जाते है। ऐसे परिवारों में नित कलह पूर्ण वातावरण बना रहने लगता है। इन परिवारों के लडके लडकियां अपने माँ-बाप की आज्ञा नही मानते। इन परिवारों के बच्चे चरित्रहीन बनते जाते है। पति-पत्नी को भी बे-वजह एक-दूसरे के ऊपर गुस्सा आने लगता है। उनके मध्य अनायास ही अविश्वास का भाव पैदा होने लग जाता है। ऐसे परिवारों में कोई भी मांगलिक शुभ कार्य शान्तिपूर्वक सम्पन्न नहीं हो पाता। आर्थिक विषमता की स्थिति भी ऐसे परिवारों में प्रायः बनी ही रहती है।
धर्म ग्रंथों में पितृदोष का वर्णन
मार्कण्डेय पुराण में एक जगह उल्लेख आया है कि पुत्रादि द्वारा श्राद्धादि कर्म करते रहने से तृप्त हुए पित्तर अपनी संतानों को स्वास्थ, दीर्घायु, आरोग्यता, सुख-समृद्धि, सेवाभावी संतान एंव उच्च पद-प्रतिष्ठा प्राप्ति का आर्शीवाद प्रदान करते है, लेकिन इसके विपरीत जो संतान अपने पित्तरों का आदर, मान-सम्मान और उनका स्मरण नही करती, श्राद्ध-तर्पणादि कर्म द्वारा उन्हें तृप्ति प्रदान नहीं कराती, जो संतान मृत्यु के तुरन्त पश्चात् अपने पित्तरों को भुला बैठती है, ऐसी संतानों को उनके असंतुष्ट पित्तर श्रापादि देकर परेशान करते रहते है। इसीलिए ऐसी संतानों को नाना प्रकार के कष्ट, नाना प्रकार के संताप भुगतने पर विवश होना पडता है। पित्तर श्राप (पितृदोष) से त्रस्त ऐसे लोग असमय ही किसी असाध्य रोग का शिकार बन जाते है या उन्हें अपने जीवन में दुःख-दुर्भाग्य, गृह कलह-क्लेश, लडाई-झगडे का सामना करना पडता है अथवा अपने जीवनसाथी से असयम वियोग का सामना करना पडता है। पितृदोष के कारण ही ऐसे लोगों की पैत्रिक सम्पत्ति का नाश हो जाता है। व्यवसाय में तीव्र घाटा और समय-वे-समय दुर्घटनाओं का शिकार बनना पडता है।
पितृदोष के संबन्ध में शास्त्रों में कहा है:-
'आयुः प्रजाः धनं विद्यां स्वर्ग मोक्षं सुखानि च। प्रपच्छान्ति तथा राज्यं पितरः श्राद्धः तर्पिता ।।'
आदि की प्राप्ति होती है।
अर्थात्ः- पितृ श्राद्ध, तर्पण से संतानों को धन, सम्पत्ति, विद्या, दीर्घायु, राज्य प्रसन्नता के साथ-साथ स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति होती है.
पितृदोष क्या है?
बहुत बार देखने में आया है कि बहुत से लोग धर्मपरायण जीवनयापन करते है। किसी का दिल नहीं दुःखाते, किसी का बुरा-भला नहीं सोचते। ऐसे बहुत से लोग अपने दिन की शुरूआत ईश्वर स्मरण से, देव पूजा और मंत्र पाठ आदि के रूप में करते है। नियमित रूप से ऐसे लोग मंदिर, देव स्थान, शिवालय आदि जाकर देव प्रतिमाओं के सामने नतमस्तक होते है, देवी-देवताओं के सामने धूप-दीप जलाते है। देव प्रतिमाओं पर पुष्पादि अर्पित करते रहते है। देवताओं के सामने नत्मस्तक होकर नित् अपने पापों की क्षमा याचना करते है। ऐसे लोग निरन्तर तीर्थ यात्राएं करके अपनी आत्मा को शुभ भाव में बनाये रखने का प्रयास भी करते है। यह लोग सदाचारी जीवनयापन करते है। झूठादि से परहेज रखने का हर संभव प्रयत्न करते है। मांस-मदिरा, पर-स्त्री, पर-पुरूषगमन से सर्वदा दूर रहते है। अपने मन से किसी का भी बुरा नहीं सोचते, उल्टा दूसरों के भले के बारे में ही सदैव सोचते-बिचारते रहते है। दूसरों की मदद के लिए भी यह लोग हर पल तैयार रहते है।इसके उपरांत ऐसे धर्म परायण जीवन के, ऐसे बहुत से लोग स्वंय अपने जीवन में विविध तरह से पीडित-परेशान बने रहते है। इन्हें स्वंय अपने जीवन में मान-सम्मान, धनाभाव से लेकर संतानहीनता या पुत्र वियोग से लेकर अपने जीवनसाथी तक से नाना प्रकार के दुःखों का सामना करना पडता है।
धर्म परायण जीवनयापन करने वाले ऐसे अनेक लोगों को अपने जीवन में निरन्तर किसी न किसी तरह की परेशानी का सामना करना पडता है। एक तरह से इनका पूरा जीवन ही अभावों से भरा हुआ, दुःख-दर्द, क्लेश, संताप से परिपूर्ण ही दिखाई पडता है। आर्थिक दृष्टि से ही नहीं, पारिवारिक दृष्टि से भी इन्हें अपने जीवन में नाना प्रकार की समास्याओं का सामना करना पडता है। पारिवारिक कलह के साथ पति-पत्नी के मध्य गहरे मतभेद उभर आना या उनके मध्य तलाक या संबन्ध विच्छेद जैसी स्थिति बन जाने की संभावना पैदा हो जाती है। एकाएक जीवन साथी की असमय मौत हो जाना जैसे अनेक संतापों का दुर्भाग्य भी झेलना पड जाता है। ऐसे परिवारों की संताने मां-बाप के नियन्त्रण से बाहर होकर अनियन्त्रित व स्वच्छन्द होकर गैर सामाजिक कृत्यों में सलंग्न हो जाती है। ऐसे लोगों के परिवार में बच्चों के वैवाहिक कार्य में भी निरन्तर विघ्न-बाधाएं और अवरोध-रूकावटें खडी होती रहती है। इतना ही नहीं, इनकी संताने अविवाहित तक रह जाती है। ऐसे परिवारों में अनेक दम्पत्ति बे-वजह ही निःसंतान बनकर संतानहीनता का संताप भोगने पर मजबूर होते है या इनके घर जन्म से ही संतानें रोग लेकर पैदा होती है। जन्मजात बीमारियां लेकर अपना पूर्व कर्ज चुकाने पर विवश करती है।
अनेक धर्म परायण समझे जाने वाले परिवारों में पैत्रिक सम्पत्ति विवाद भी प्रायः देखा जाता है या इनको प्राप्त हुई पैत्रिक सम्पत्ति एकाएक विवाद में पडते देखी गई है। बे-वजह कुछ लोग जोर जबरदस्ती से उनकी पैत्रिक जमीन, जायदाद को हथियाने का प्रयास करने लगते है। अनेक बार तो उनकी जमींन का सरकार द्वारा ही अचानक अधिकरण कर लिया जाता है। ऐसे लोगों को बार-बार झूठे दोषारोपण का सामना करना पडता है या वह बे-वजह ही किसी मुकदमेबाजी में, किसी विवाद में फंस जाते है। उन्हें बे-वजह पुलिस के चंगुल में पडकर जेल यात्रा या कारावास तक जाने के लिए मजबूर होना पडता है।
जीवन से संबन्धित उपरोक्त कुछ ऐसी समस्याएं है, कुछ ऐसी घटनाएं है, जिनका समुचित उत्तर दे पाना सहज रूप में संभव नही होता। ऐसे व्यक्तियों को अपने जीवन में द्वन्द्व भरा आचरण निभाना पडता है। यद्यपि इस प्रकार की प्रतिकूल घटनाओं और उन समस्याओं के 'सूत्र' कुछ हद तक उनकी जन्म कुंडलियों में देखे जा सकते है। उनके ऐसे दुःख-दुर्भाग्य के सूत्र उनके प्रार्रब्ध में, उनके पूर्व जीवन से संबंधित रहते है। क्योंकि किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में निर्मित हुई ग्रह स्थितियां एक तरह से उसके प्रार्रब्ध व पूर्व कर्मों को ही प्रकट करने का कार्य करते है। ऐसी समस्त घटनाओं व उनके संयोग के पीछे व्यक्ति के पूर्व जीवन के संचित कर्मों को ही जिम्मेदार माना जाता है। वैदिक जीवन में इसे ही 'पितृदोष' या 'पितृश्रप' के रूप में देखा गया है।
जीवन से संबन्धित ऐसी समस्त समस्याओं, जीवन की ऐसी परेशानियों और पीडाओं के लिए हमारे प्राचीन ऋषि- मुनियों और ज्योतिष मर्मज्ञों ने व्यक्ति के पूर्व जीवन के संचित कर्मों, पूर्व जीवन के किसी श्राप से ग्रस्त रहने (पितृश्राप पीडित रहने) को एक प्रमुख कारण के रूप में स्वीकार किया है।
श्राद्ध में क्या करें ?
दिवंगत पूर्वजों की मृत्यु तिथि पर ससत्कार अपने घर या अपनी कुल देवी अथवा कुल देवता के स्थान पर, ब्रह्म देव (ब्राह्मण) को आमन्त्रित करके उन्हें सुस्वादु भोजन कराएं। भोजन कराने के बाद ब्रह्मदेव को वस्त्र, दक्षिणा आदि दान देकर उनका आर्शीवाद ग्रहण करना चाहिए।
ब्राह्मण भोजन से पूर्व पितृ तर्पण और पितृ श्राद्ध कर्म सम्पन्न करने का विधान है। इस पितृ श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन से पूर्व पांच अलग-अलग पत्तलों के ऊपर पंचबलि निकाल कर उन्हें क्रमशः गाए, कौए, कुत्ते, चीटियों और अतिथि को खिलाना चाहिए। ब्रह्म भोज में गऊग्रास भी आवश्यक रूप में निकालना चाहिए।
पंचबलि के बाद अग्नि में भोज्य सामग्री, सूखे आंवले, मुनक्का आदि की तीन आहूतियां प्रदान करके अग्निदेव को भोग लगाना चाहिए। इससे अग्निदेव प्रसन्न होते है। दरअसल, श्राद्ध के अन्न को अग्निदेव ही सूक्ष्म रूप में पित्तरों तक पहुंचाने का माध्यम बनते है।
श्राद्ध कर्म में एक हाथ से पिंडदान करें और आहुतियां प्रदान करें, जबकि तर्पण के समय अपने दोनों हाथों से जलांजलि बनाकर तर्पण करना चाहिए।
तर्पण के समय अपना मुंह दक्षिण की तरफ रखे। कुश तथा काले तिल के साथ जल को दोनों हाथों में भरकर और आकाश की ओर ऊपर उठाकर जलांजलि दी जानी चाहिए। यही तर्पण है। ऐसी जलांजलि कई बार प्रदान की जाती है अर्थात् अंजलि में जल भरकर उसे बार-बार जल में गिराना चाहिए। पित्तरों का निवास आकाश तथा दिशा दक्षिण की ओर माना गया है। अतः श्राद्ध और तर्पण में पित्तरों के निमित्त सम्पूर्ण कार्य आकाश की ओर मुंह करके ही सम्पन्न किए जाने चाहिए। श्राद्ध कर्म केवल अपरान्ह काल में ही सम्पन्न करने चाहिए।
श्राद्ध में क्या न करें?
पद्म पुराण और मनु स्मृति के अनुसार श्रद्ध सम्पन्न करते समय दिखावा, प्रदर्शन बिलकुल नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से श्राद्ध का फल नही मिलता। अतःकर्म सदैव पूर्ण एकान्त स्थान या नदी तट पर बैठकर, गुप्त रूप से ही सम्पन्न कराना चाहिए।
श्राद्ध के दिन घर में दही नहीं बिलोना चाहिए और न ही उस दिन घर में चक्की चलानी चाहिए।
श्राद्ध के दिन अपने बाल भी नहीं काटवाने चाहिए।
श्राद्ध में तीन वस्तुएं अति पवित्र मानी गई है। दुहिता पुत्र, तिपकाल (दिन का आठंवा भाग) और काले तिल। अतः श्राद्ध के समय इनका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। श्रद्ध और पितृपूजा में 'कुश' का भी विशेष महत्व रहता है।
श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान करते समय तुलसी का प्रयोग करने से पित्तर अति प्रसन्न होते है।
श्राद्ध के निमित्त सन्मार्गी एंव सात्विक ब्राह्मण को ही अपने घर भोजन के लिए आमन्त्रित करना चाहिए। भोजन के
समय 'पितृ सूक्त' का पाठ करना चाहिए। श्रद्ध पक्ष में पूरे पक्ष के दौरान ही अपने भोजन करने से पूर्व गीग्रास के रूप में गाय को रोटी अवश्य निकालनी चाहिए।
श्राद्ध कब न करें?
पूर्वजों की मृत्यु के प्रथम वर्ष में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। पूर्वान्ह में, शुक्ल पक्ष के दौरान, रात्रि के समय और अपने जन्म दिन के असवर पर श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए।
इसी प्रकार चतुर्दशी तिथि को भी श्राद्ध नही करना चाहिए। इस तिथि को मृत्यु को प्राप्त हुए पित्तरों का श्राद्ध दूसरे दिन अमावस्या तिथि को सम्पन्न करने का शास्त्रीय विधान है।
कूर्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति अग्नि, विष आदि के द्वारा आत्महत्या करके अपनी जान देता है, उसके निमित्त श्राद्ध, तर्पण आदि करने का विधान नही है।
" ॐ पवन पुरूषाय विद्महे सहस्त्र मृत्यै च धीमहि, तन्नो वायुः प्रचोदयात्।"
पितृजनों को सदैव प्रसन्न रखने के लिए पितृ श्राद्ध के अतिरिक्त गया जी जैसे पितृ तीर्थों में जाकर भी पिंडदान का कार्य सम्पन्न कराना चाहिए। जो लोग पितृदोष से ग्रसित रहते है, उनके लिए श्राद्ध पक्ष में पित्तरों के निमित्त श्राद्ध, तपर्ण जैसे कार्यों के अतिरिक्त प्रत्येक अमावस्या के दिन ब्राह्मण भोजन करने एंव शिव कृपा की प्राप्ति के लिए 'रूद्राभिषेक' का पाठ सम्पन्न कराना भी उत्तम माना गया है।
पितृ लोक
शास्त्रों में जगह-जगह ऐसा उल्लेख आया है कि सूर्य छः महीने भूमध्य रेखा के उत्तर में तथा छः महीने भूमध्य
रेखा के दक्षिण की ओर दिखाई पडते है। सूर्य की इसी स्थिति के आधार पर उत्तरायन और दक्षिणायन के रूप में वर्ष का विभाजन किया गया है। उत्तरायन काल में देव सुषुप्ति में रहते है अर्थात् यह देवताओं का शयनकाल होता है। इसी प्रकार दक्षिणायन काल में पितृलोक प्रकाशित रहता है अर्थात् इस अवधि में पितृलोक में पित्तर सक्रिय होते है। यह उनका जागरण काल कहा गया है। इस समय चन्द्रलोक पर एक तरह से पित्तरों का अधिपत्य बना रहता है। इस अवधि में पित्तरों के लिए पृथ्वी (मृत्युलोक) पर जाने का मार्ग भी खुल जाता है, साथ ही पित्तरों को चन्द्रमा से शक्ति भी प्राप्त होती है। इस समय यमराज भी पित्तरों को अपने वंशजों से मिलने के लिए कुछ समय की छूट प्रदान करते है। इसी से इस अवधि में पितृलोक से लौटकर पित्तर अपने वंशजों के द्वार पर आकर कव्य (नैवेद्य) रूपी भोज्य पदार्थ पाने की इच्छा से प्रतीक्षारत् रहते है। मत्स्य पुराण के अनुसार, 'जब हमारी पृथ्वी सूर्य का परिभ्रमण करती हुई सूर्य के दक्षिणायन में पहुँचती है, तब सूर्य देव भी कन्या राशि में परिभ्रमण कर रहे होते है। उस समय पितृलोक मृत्युलोक के कुछ अधिक नजदीक आ जाता है। कन्या राशिगत् सूर्य की इस स्थिति के अनुसार ही पित्तर श्राद्ध आदि कर्म सम्पन्न करना अति शुभ माना गया है।' इसीलिए इस पन्द्रह दिन की अवधि को 'श्रद्ध' कर्म के लिए सुनिश्चित किया गया है। यह समय प्रतिवर्ष आश्विन मास के शुक्लपक्ष में पूर्णिमा से शुरू होकर अमावस्या तक रहता है। इन दिनों सूर्य के कन्या राशि में भ्रमण करने के कारण इसे 'श्रद्धपक्ष' के साथ-साथ 'कन्यागत सूर्य' या 'कनागत' भी कहा जाता है।
श्राद्ध का फल
शास्त्रकारों ने कहा है कि जो व्यक्ति (श्रद्धाहीन होकर) अपने पितृजनों के निमित्त श्राद्ध कर्म नहीं करता उसके परिवार में वीरों का जन्म नहीं होता और न ही उसके परिवार में कोई निरोग एंव स्वस्थ बना रहता है, जहाँ तक कि उस परिवार के किसी सदस्य को दीर्घायु भी प्राप्त नही हो पाती और न ही उस परिवार से किसी का कल्याण होता है।
शास्त्रमत् में गोत्र एंव स्वनाम उच्चारण के साथ श्राद्ध कर्म के रूप में पित्तरों के निमित्त दिया गया अन्न, जल आदि भोजन सामग्री पित्तरों के ग्रहण योग्य बन जाती है और 'हव्य' बनकर निश्चित ही पित्तरों के पास पहुंचता है।
पितृ लोक कहाँ है ?
सूर्य सिद्धान्त में कहा गया है
इन्दोर्मण्डलतश्चोर्वे स्थितास्ते पित्तरो रविम्।
उदितं कृष्णपक्षार्षे पश्चन्त्यस्तं सितार्धके।।
अर्थात् चन्द्रमा के ऊर्ध्व भाग पर स्थित पित्तरों का सूर्योदय कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को एंव सूर्योस्त शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को पडता है।
त्रिशंता तिथिभिः मासश्चांद्रः पित्रयमहस्स्मृतम्।
निशा च मास पक्षांते तयोर्मध्ये विभागतः ।।
अर्थात् तीस तिथियों का एक चन्द्र मास होता है, जो पित्तरों का एक अहोरात्र समझा जाता है। चंद्र मास के अंत में अर्थात् अमावस्या के अंत में पित्तरों का मध्याह्न काल एंव पक्ष के अंत अर्थात् पूर्णिमा के बाद में पित्तरों की मध्य रात्रि काल होती है। इस प्रकार शुक्ल पक्ष की अष्टमी के आधे भाग से पित्तरों की रात्रि का आरंभ होता है।
भास्कराचार्य ने भी अपने 'सिद्धान्त शिरोमणि' ग्रंथ में यही कहा है
विघूर्ध्वभागे पितरो वसंतः स्वाधः सुधादीधितिमामनन्ति ।
पश्यिन्ति तेऽर्क निजमस्तकोदर्श यतोऽस्माद्द्युदलं तदैषाम् ।।
भार्द्धान्तरत्वान्न विधोरषस्थं तस्मान्निशीथः खलु पौर्णमास्याम्।
कृष्णे रविः पक्षदलेऽभ्युदेति शुक्लेऽस्तमेत्यर्थत एव सिद्धम् ।।
अतः इस प्रकार इन सबसे यही स्पष्ट होता है कि पित्तर लोक में कृष्णाष्टमी को सूर्योदय, शुक्लाष्टमी को सूर्यास्त, अमावस्या को मध्याह काल एंव पूर्णिमा को अर्धरात्रि होती है। यहां यह भी उल्लखेनीय है कि जब हमारे यहां अमावस्या तिथि पडती है, उस समय पित्तर लोक में मध्याह काल का समय रहता है, जो पित्तरों के भोजन का समय रहता है। इसी कारण हम प्रत्येक अमावस्या को भी पित्तरों को तर्पणदि प्रदान करते है। यह तर्पण पित्तरों को निश्चिम रूप में पहुंचता है।
पित्तर लोक
चन्द्रमा को पृथ्वी का उपग्रह माना गया है। वह पृथ्वी से लगभग 3, 84, 401 किलोमीटर दूरस्थ रहकर पृथ्वी की एक परिक्रमा औसतन् 27 दिन, 7 घंटे और 43 मिनट में पूरा कर लेता है। यहां एक महत्वपूर्ण बात ध्यान रखने की है कि चन्द्रमा का केवल एक भाग ही पृथ्वी की ओर रहता है, चाहे वह किसी भी मात्रा में प्रकाशित हो रहा हो। जबकि चन्द्रमा का दूसरा भाग कभी भी पृथ्वी की ओर नही आता। अतः चन्द्रमा का वह भाग कभी भी पृथ्वी से दिखाई भी नही देता। इसका कारण यह है कि चन्द्रमा जितनी अवधि में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूरी करता है, उतनी ही अवधि में वह अपनी धुरी पर भी एक बार घूम जाता है। चन्द्रमा की इस गति को समकालिक घूर्णन कहते है। इसी कारण चन्द्रमा का एक भाग ही सदैव पृथ्वी पर दिखाई पडता है। चन्द्रमा का दूसरा आधा पृष्ठ भाग कभी भी पृथ्वी की ओर नही आता है। चन्द्रमा के इसी पृष्ठभाग को कुठ लोग 'पित्तर लोक' मानते है।
चन्द्रमा के समकालिक घूर्णन के कारण उसकी धरा पृथ्वी के सापेक्ष एक-एक महीने के दिन और रात होते है। जिस अवधि (27 दिन, 7 घंटे और 43 मिनट) में चन्द्रमा पृथ्वी की एक परिक्रमा पूरी करता है, उसी अवधि में पृथ्वी भी सूर्य के गिर्द अपने परिक्रमा पथ पर काफी आगे बढ जाती है। इसलिए चन्द्रमा के प्रकाशित भाग को उसी आकृति में पुनः आने में लगभग दो दिन पाँच घंटे और एक मिनट का और अधिक समय लग जाता है। इस प्रकार चन्दमा का पूर्ववत् प्रकाशित भाग लगभग 29 दिन, 12 घंटे और 44 मिनट पश्चात् ही पुनः उसी आकार में पृथ्वी से दिखाई देता है। इसी कारण पूर्णिमा से पूर्णिमा अथवा अमावस्या से अमावस्या लगभग 29 दिन, 12 घंटे और 44 मिनट बाद पुनः ही पुर्नःरावृत्ति करती है। इसी अवधि को चन्द्रमा पर एक अहोरात्र (दिन-रात) कहा जाता है। यही पित्तरों का एक 'अहोरात्र' भी माना गया है। एक बात और भी ध्यान रखने की है कि पित्तरों के दिन-रात एंव सूर्योदयास्त भी पृथ्वीलोक की तरह ही घटित होते रहते है। अतः इनके विषम में जान लेना भी जरूरी है। चूँकि चन्द्रमा के पृष्ठ भाग को पित्तर लोक माना गया है। अतः जब हमारे यहां अमावस्या होती है, तब चन्द्रमा का पृष्ठ भाग ठीक सूर्य के सामने होता है। उस समय पित्तर लोक में मध्याह का समय रहता है। जब हमारे यहां पूर्णिमा होती है, उस समय चन्द्रमा का पृष्ठ भाग सूर्य से परे रहने के कारण वहाँ अंधकार पसरा रहता है। पित्तर लोक में उस समय अर्द्धरात्रि का समय रहता है।